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अंकित होने दो / शेखर जोशी

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मैं कभी कविताएँ लिखता था, शुभा !
और तुम अल्पना !
चाँद-तारे
फूल-पत्तियाँ
और शंखमुद्री लताएँ चित्रित करते
न जाने कब
कविताओं की डायरी में
मैं हिसाब लिखने लगा ।
कभी ख़त्म न होने वाला हिसाब
अल्ल-सुबह टूटी चप्पल से शुरू होकर
 देर रात में फटी मसहरी के सर्गों तक फैला
अबूझ अंकों का महाकाव्य

और तुम
अस्पताल, रोज़गार-दफ़्तर
और स्कूलों की सूनी देहरी पर
माण्डती रही वर्तुल अल्पना

साल दर साल !
साल दर साल !!

शुभा !
अभिशप्त हैं पीढिय़ाँ
लिखने को कविताएँ
बुनने को सपने
और अंकित करने को सतरंगी दुनिया ।

न रोको उन्हें
लिखने दो शुभा
दीवारों पर नारे ही सही
अंकित होने दो उनके सपनों का इतिहास ।