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अंक और शून्य / अनुपम कुमार

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अंक और शून्य
के बड़े ही गुण
अंक के विस्तार में
इस बड़े संसार में
सब कुछ जैसे खो गया
थक हार जग सो गया
शून्य की किसको पड़ी
है ये पर अंक से बड़ी
धोखा अंक का खा गया
जग इसी में समा गया
शून्य से हम आये हैं
शून्य को ही हम जाये हैं
अंक मन का भाव है
सब मगर अभाव है
शून्य की ही बस परिधि है
अंक तो बस वारिधि ही है
भवसागर जो पार करना है
शून्य से तो न डरना है
अंक के ही सब खेल हैं
समझने में हम फ़ेल हैं
अंक को राम-सलाम है
पर शून्य को प्रणाम है