भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अंगद जी का दूतत्व / तुलसीदास/ पृष्ठ 4

Kavita Kosh से
Dr. ashok shukla (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:35, 2 मई 2011 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


 

( छंद संख्या (15) से (16) )

(15)

अति कोपसों रोप्यो है पाउ सभाँ, सब लंक ससंकित, सोरू मचा ।
तमके घननाद-से बीर प्रचारि कै, हारि निसाचर-सैनु पचा।।

न टरै पगु मेरूहु तें गरू भो, सो मनो महि संग बिरंचि रचा।
‘तुलसी’ सब सूर सराहत हैं, जग में बल सालि है बालि-बचा।15।

(16)

रोप्यो पाउ पैज कै, बिचारि रघुबीर बलु,
लागे भट समिटि, न नेकु टसकतु है।

तज्यो धीरू-धरनीं, धरनीधर धसकत,
धराधरू धीर भारू सहि न सकतु है।।

महाबली बालिकें दबत दलकति भूमि,
‘तुलसी’ उछाल सिंधु, मेरू मसकतु है।

कमल कठिन पीठि घट्ठा पर्यो मंदरको,
आयो सोई काम, पै करेजो कसकतु है।16।

सबको भलो है राजा रामके रहम हीं।8।