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अंगिका रामायण / चौथा सर्ग / भाग 5 / विजेता मुद्‍गलपुरी

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नारी असमरण, स्वरूप वरनन, आरू
नारी से सम्भाषण जे कहियो न कैलका।
नारी से गुपुत बात, नारी सम्बन्धों में बात
नारी से न दरस-परस जौने कैलका।
नारी के न कामना, न नारी में रमण कभी
नारी के जे सपनों में चित में न धैलका।
ऐसन संयमी बस एक मात्र शृंगी ऋषि
पुरोहित राजा रोमपाद के बतैलका॥41॥

यदि कोनो विधि ऋषि चंपा के नगर आवी
आपद निवारण के हेतु यज्ञ करतै।
उनकर यज्ञ से ही प्रकृति प्रसन्न होत
यज्ञ बलें यहाँ घनघोर मेघ परतै।
यज्ञ बलें अंग के रोॅ संकट हरण होत
यज्ञ बल से ही उपकार देव करतै।
तब सब मिली-जुली जुगति बिचार करै
केना चंपानगर में शृंगी गोर धरतै॥42॥

दोहा -

वैसं तेॅ संसार में, लाखों राजकुमार।
लेकिन सब से भिन्न छै, ऋषि शृंगी सुकुमार॥7॥

फेरो से पुरोहित विचारी कहै एक बात
शृंगी सुकुमार सब वेद के विद्वान छै।
शंृगी क समान कोनो संयमी चरित्रवान
खोजी तोहें देखि लेॅ जगत में न आन छै।
लागै छै स्वरूप जैसें देवता प्रकट भेल
विभाण्डक पुत्र शृंगी बहुत महान छै।
सब विधि लागै शान्ता सुकमारी जोग वर
विभाण्डक पुत्र सब गुण के रोॅ खान छै॥43॥

कौन विधि ऐता ऋषि शृंगी चंपा नगर में
सब मिली गहन विचार करेॅ लागलै।
कौने-कौने जैता ऋषि शृंगी के लानै के लेली
विभाण्डक के रोॅ कोप सुनी सब डरलै।
एक जन ठार भेल देश नाम ईश बूझी
जेना कोनो वीर रण भूमि में उतरलै।
शृंगी के लाने के तन मन में संकल्प बान्ही
दायित्व सम्हारी मालिनी के दिश चललै॥44॥

विभाण्डक से मिली केॅ शृंगी के माँगै के लेली
राजा रोमपाद दूत आपनोॅ भेजलका।
विभाण्डक पास आवी रोमपाद के रोॅ दूत
भाँति-भाँति अंग के रोॅ समस्या सुनैलका।
राजा के रोॅ दूत के सम्मान करि विभाण्डक
अपनोॅ कूटी में लानी सादर बिठैलका।
लेकिन शृंगी क चंपानगर भेजै के नामें
विभाण्डक स्वीकृति के सिर न हिलैलका॥45॥

लौटल निराश दूत विभाण्डक से मिली केॅ
आवी केॅ नगर में ऊ खबर सुनैलकै।
तब राजा पुरोहित-मंत्री के भेजलकाथ
किन्तु विभाण्डक ऋषि कुछ न चितैलके।
तब सब मिली-जुली जुगती बिचार करी
नगरवधु के दरबार में बौलैलकै।
अंग के समस्या साथे देश के दायित्व आदि
पुरोहित-मंत्री सब मिली समझैलकै॥56॥

जेना कि कमल दल जल के ही बीच रही
जल के प्रभाव से विलग रही जाय छै।
जेना सिद्ध संत जन जगत के बीच रही
जोग के धारण करि भोग विलगाय दै।
जेना हंस नीर आरो क्षीर के विलग करै
ज्ञानी जेना मोह आरो प्रेम विलगाय छै।
वैसी-ना नगर वधु आसक्ति के भाव रचि
जोग संग भोग के भी सहजें दुराय छै॥47॥

दोहा -

रोपि भोग में जोग के, अनासक्त रहि लोग।
जे भी भोगै भोग के, फलै भोग में जोग॥8॥

नारी बरजित वन में बसय शृंगी ऋषि
नारी अेॅ पुरुष के न भेद पहचानै छै।
अब तक जिनका न नारी दरस भेल
नारी अेॅ पुरूष दोनों एक रंग जानै छै।
जौने कि जगत के रोॅ भोग के न सुख जानै
विषय विराग दोनो एक रंग मानै छै।
उनकर चित हम करब नारी के दिस
नारी तप-जोग के रॉे जंगल उजारै छै॥48॥

चित्त जों नारी में बसै काम प्रज्वलित हुऐ
शत्रु में बसै जों चित्त, क्रोध जागि जाय छै।
धन में बसै जों चित्त लोभ जागी-जागी उठै
पुत्र में बसै जों चित्त, मोह जागी जाय छै।
मान में बसै जों चित्त, बाढ़े अभिमान बड़ी
अति अपेक्षित चित्त इरषा बढ़ाय छै।
भनत विजेता चित्त रोपि राखोॅ राम-पद
छन में ही मन के रोॅ कामना दुराय छै॥49॥

तपसी के जौने विधि तप से डिगावै लेली
देवता समाज अपसरा के पठाय छै।
आवै अपसरा तपसी के तप तोड़ै लेली
मन-बुद्धि-करम से जुगती भिराय छै।
रति के स्वरूप धरि, पति निवेदित करि
तपसी में तुरत मदन निरमाय छै।
जोग के रोॅ पथिक के भोग दिश फेरी लावै
जोग के मिंघारी क ऊ जगती बनाय छै॥50॥