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अंगिका रामायण / चौथा सर्ग / भाग 6 / विजेता मुद्‍गलपुरी

वहेॅ काम राजा लेली करै छै नगर-वधु
अपनोॅ ऊ मोहक स्वरूप निरमाय छै।
जौने काज राजदण्ड से भी न सफल हुऐ
ओकरा नगर-वधु सुगम बनाय छै।
जौने कि समाज के समस्त विष पान करि
अपने सामाजिक कभी न बनि पाय छै।
देश या समाज के रोॅ संक्रमण काल बेरि
नायिका के भूमिका गरब से निभाय छै॥51॥

घुमि-घुमि सभ्यता के अलख जगावै बाला-
लेली अनकहल जुवान छिके गनिका।
सभ्य कहलावै वाला जेकरोॅ चरण छूऐ
तेन्होॅ अवगुन के रोॅ खान छिकै गनिका।
जगत के अपयश, अॅचरा सहेजी राखै
भंगिमा के मूर्त सुसकान छिकै गनिक।
पुरूष के मन में जे घृणित विचार पलै
ओकरोॅ अटल अवदान छिकै गनिका॥52॥

दोहा -

गनिका में छै संत सन, अनासक्ति के भाव।
भोगै पुरूष-प्रधान के, चित में रखै दुराव॥9॥

गनिका विरिध किन्तु परम चतुर छेली
राजा रोमपाद तब उनका मनैलकै।
गनिका रतनमाला के रोॅ बेटी अंशमाला
जेकरा कि ई शुभ कारज में लगैलकै।
अंग के अकाल के रोॅ हाल बिसतार कही
पुरोहित जी ने अंशुमाला के बतैलकै।
विभाण्डक के रोॅ तप-तेज अेॅ स्वभाव-गुण
एक-एक करि बिसतार से बतैलकै॥53॥

केना-केना शृंगी के लानै के उतजोग होत
रतनमाला ऊ अंशुमाला के बतैलकै।
सब से प्रथम ‘अंशु’ मालिनी के जंगल के
आपस में बात करि नकसा बनैलकै।
देश के रोॅ आपत धरम पे विचार करि
राजा के आदेश निज सुरती में धैलकै।
जदपि कठिन काज छै शृंगी ऋषि के लाना
तदपि रतनमाला बीड़ा ई उठैलकै॥54॥

देश के दायित्व बूझि माता के आदेश मानी
अंशुमाला तब निज केश सोरियैलकै।
वर के रोॅ दूध से बनैलोॅ गेल जटा-जूट
सिर पर तिलक त्रिपुण्ड रूप धैलकै।
अंग-अंग भसम रमावी तब अंशुमाला
वक्ष पर मृग चर्म यति जकाँ धैलकै।
कटि पर मेखला बघम्बर वसन धरि
अंशुमान कर में कमंडल उठैलकै॥55॥

जेहने सजैलोॅ गेलै अंशुमाला के स्वरूप
ओहने सहेली कुछ आरो रूप धैलकै।
ओनाही केॅ जटा-जूट, वैसी ना तिलक माला
वैसीं सब अंग-अंग भसम रमैलके।
वैसी ना मिरिग चर्म, कटि पर बघम्बर
वैसी सब तपसी के रूप रंग कैलकै।
सब के रोॅ सुत्रधार बनली रतनमाला
ठाम-ठाम सब शुभ जुगती बतैलकै॥56॥

नाव सजवैलोॅ गेल, घाट पुजवैलोॅ गेल
सब मिली गंगा सुरसरि के मनैलकै।
पूजन सम्पन्न करि नाव के रोॅ माँगी पर
भाँति-भाँति सोना-चाँदि-रूपा मढ़वैलकै।
नया-नया बॉस के गुरक्खा-पलडंडी-लग्गी
नया-नया रसरी अेॅ पाल बनवैलकै।
नया गुण-सरहा अेॅ नया पतवार-डाँड़
नया गुरहा पे नया चँचरी बिछैलकै॥57॥

दोहा -

सुदिन सुलगन विचारि केॅ, सजल विविध विधि नाव।
अजब अंधुमाला दिखै, हरखित नीक स्वभाव॥10॥

नाव के ऊपर सब कुछ सोहै नया-नया
एक-टा पुरान माँझि हाथ पतवार छै।
जेकरा पे सखि संग बैठली नगर बधु
सभ्य परिधान, सौम्य जेकरोॅ विचार छै।
देश के पूजी केॅ एक गणिको पूजित भेली
गृहणी सराहै एक गणिका के प्यार छै।
सब के रोॅ आँख तब श्रद्धा से उमड़ि गेल
अंग के रोॅ धरती के महिमा अपार छै॥58॥

चलल वहाँ से लागी-डाँड के सहारे नाव
हवा अनुकूल देखि पाल तानि देलकै।
जहाँ-जहाँ धार कुछ खड़हड़ भेल गेल
गुन गुनवाहक उतरि धरि लेलकै।
नाव अजगैवी महादेव के चरण छूवी
रूख तब ऋषि मुद्गल दिस कैलकै।
नाव बड़ी तेज गति पश्चिम बढ़ल गेल
मुनिगृह आवी नाव लंगर गिरैलके॥59॥

मालिनी जंगल दिस चलली नगर वधु
काँट-कूस, झाड़-पात सब के कुचलने।
झाड़-झाड़ी बीच कुछ खड-खड-खड सुनि
बूझि व्यवधान गेली रसता बदलने।
साँप-बिच्छू-बाघ-सिंह सब के रोॅ डर टारी
बाघा आरो बिघन से चलली ओहजने।
धीरे-धीरे आवी गेली नारी वरजित वन
वाणी के विनायक के मन में सुमरने॥60॥