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अंगिका रामायण / छठा सर्ग / भाग 14 / विजेता मुद्‍गलपुरी

मोह भंग भेल ई सामाजिक व्यवस्था से
रसें-रसें मन तब ऋषि के उचटि गेल।
अहिल्या के सेवा में लागल रहै सदानीरा
लोग के कुबोल सुनि कुटिया से हँटि गेल।
सूखि गेल माता के ममत्व के रोॅ धार जब
तब सतानन्द ऋषि पिता कोर सटि गेल।
इन्द्र से अधिक ई समाज के छै दोष राम
गौतम के घर जिनका कोपें बिलटि गेल॥131॥

सोरठा -

पुत्र भ्ेाल जब स्यान, ऋषि समाधि में गेल तब।
जनक भेल यजमान, सतानन्द महराज के॥17॥

देथिहै समाज यदि इन्द्र के सही में दोष
कभी न अहिल्या रूप पत्थर के लेथिहै।
नफरत इन्द्र से करथिहै समाज यदि
अहिल्या नै! इन्द्र आत्महत्या करि लेथिहै।
मिलथिहै सामाजिक सम्बल अहिल्या के तेॅ
इन्द्र के पूजन वरजित करि देथिहै।
सामाजिक मूल्य के न होथिहै क्षरण यदि
गौतम नेॅ एन्होॅ में अहिल्या के तजथिहै॥132॥

देलक समाज दोष सब-टा अहिल्या के रोॅ
उलटे बलातकारी सगरो पुजावै छै।
समुचे समाज इन्द्र के रोॅ जयकार करै
पीडित अहिल्या ही कुलछनी कहावै छै।
ओहनोॅ समाज के पतन जानोॅ रामचन्द्र
जौने अपराधी के मनोबल बढ़वै छै।
पीड़ित अहिल्या जहाँ, सिर न उठावेॅ पारेॅ
अपराधी इन्द्र जहाँ नित्य मान पावै छै॥133॥

कहलन विश्वामित्र पतितपावन राम
शापित अहिल्या के उद्धार अब करि देॅ।
हे दयानिधान रम, अवला के पीर हरोॅ
जड़वत अहिल्या के चैतन्य तों करि देॅ।
तोहेॅ जग रमता, तो घट-घट वासी राम
तोहेॅ उपकार एक नारी पर करि देॅ।
सहजें मनुष्य रूपधारी अवतारी राम
अहिल्या के सतित्व प्रमाणित तों करि देॅ॥134॥

चरण परसते ही चैतन्य भेली अहिल्या
देखलकि सामने प्रकट प्रभु राम के।
रूप के निहारते, निहारते ही रहि गेली
चरची न पावै रूप शोभा सुख धाम के।
भगति विभोर भेली, चरण में लागी गेली
देखते रहलि रूप सिन्धु अभिराम के।
दोनों कर जोरि फेरो असतुति करलन
जयति-जयति कहि जय प्रभु राम के॥135॥

बोलली अहिल्या सुनोॅ पतित पावन राम
तोरोॅ दरसन अघ सब-टा नशाबी गेल।
मिटि गेल जीवन के सब-टा अज्ञान राम
तन-मन-बुद्धि सब पावन बनावी गेल।
पूत-पति-सेविका-समाज-परिजन-गृह
सब के यथारथ समझ अब आवी गेल।
अभिशाप आज वरदान सिद्ध भेल राम
तोरो दरसन पावी जनम जुरावी गेल॥136॥

सोरठा -

प्रभु बहुरल अब ज्ञान, जीव छिकौ हम देह नेॅ।
पाँचो तत्व विरान, परम तत्व बस ब्रह्म छिक॥18॥

हमरा पतित कहि जग तजलक राम
तोहें सदा सत्य प्रमाणित करि जाय छेॅ।
पति के न दोष, न समाज के ही दोष देव
सब-टा अमंगल भी मंगले बुझाय छेॅ।
हम हतभागी, वरभागी भेलौ आजु राम
जगत के सब सुख छनिक बुझाय छेॅ।
अपनोॅ शरण में लगावी लेॅ कृपालु राम
भगति सामिण्य अब बड़ी मन भाय छै॥137॥

पाप आरो पुण्य से विभूषित ई देह छिक
एकरोॅ जरूरत न कुछ भी बुझावै छै।
जगत के भौतिक समस्त सुख चाहै वाला
बेर-बेर आवी जग में ही ओझरावै छै।
स्वरग के चाहै वाला पाावै छै स्वरग राम
तोरा जौने चाहै ऊ अवश्य तोरा पावै छै।
हम एक जीव छिकौं, नारी न पुरूष राम
पाप रूपी देह में जे परि अकुलावै छै॥138॥

जौने पद नख से बहार भेली सुरसरी
आरो महादेव निज सिर पर धैलकै।
वहेॅ पग के रोॅ धूल परल, तरल तन
गौतम के नारी बड़ी असतुति गैलकै।
तखने समाधि भंग भेल ऋषि गौतम के
हरखित जौने अहिल्या के अपनैलकै।
गौतम-अहिल्या दोनों जोत मिली एक भेल
राम ऊ परम जोत अपना में कैलकै॥139॥

सोरठा -

कैलन राम विचार, इन्द्र न पूजन जोग छै।
रोकव हय सहचार, हम द्वापर में एक दिन॥19॥