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अंगिका रामायण / तेसरोॅ सर्ग / भाग 11 / विजेता मुद्‍गलपुरी

सुनोॅ भारद्वाज एक आरो अवतार कथा
पारबती के जे महादेव जी सुनैलकै।
कैकय देशोॅ में एक राजा सत्यकेतु रहै
धरम के बलें राज आपन चलैलकै।
बड़ी नीतिवान, तेजवंत अेॅ प्रतापी रहै।
विश्व के नरेश जिनकर, यश गैलकै।
पुत्र ने प्रतापभानु, आरो अरिमरदन
दू टा वलशाली गुणवंत पुत्र पैलके॥101॥

बड़का पूतोॅ के सब राज-पाट सौपी राजा
तप हेतु जंगल के राह धरि लेलकै।
राज-काज पावी तब प्रतापी प्रतापभानु
धरम के धारी राज आपन चलैलकै।
सगरो दुहाई परै, धन्य हो प्रताप भानु
राज-काज हेतु वेद विधि अपनैलकै।
राज में न पाप कहीं, कोनो भी संताप नाही
चारो दिश धरम के अलख जगैलकै॥102॥

राजा के रोॅ मंत्री छेलै बुद्धिमान धर्मरूची’
भाई छेलै बलवान, सेना चतुरंगिनी।
जेकरा कि बलें राजा जगत विजेता भेल
जिनकर सेना कई-एक अक्-छोहिनी।
निज सैन्य-वलेॅ बेलें सातो द्वीप जीत ऐला
राजा चक्रवर्ती भेला जीत पूरे धरनी।
राज के रोॅ जीती सब राजा के अभय करि
शान्ति बिसतारै सब सेना शस्त्र वाहिनी॥103॥

धरम-अरथ-काम, सब सुख भोगै राजा
सब नार-नारी सुचत्रि-सुविचार के।
बिन भेद-भाव कैने सम रूप न्याय मिलै
पूजै सब कानुन, न्यायिक व्यवहार के।
राजा-गुरू-वैद-संत-देव आरू ब्राह्मण के
सब दै सम्मान, सेवै बिरिध लाचार के।
वेद में जे राजा के रोॅ धरम बतैलोॅ गेलै
राजा राखलक सब नीति में उतारि केॅ॥104॥

दोहा -

शासन भानु प्रताप के, लगै राम के राज।
सुन्दर-सुखद समाज छै, न्यायोचित हर काज॥17॥

मन-कर्म-वाणी वासुदेव के चरण सौपी
सगरो पसारै यश ज्ञान-विगियान के।
भाँति-भाँति दान अेॅ मंदिर निरमान करै
नित ही वखान करै कथा अेॅ पुरान के।
नगर में कुआँ अेॅ तलाव खुदबाबै आरू
सागर कहावै नृप भगती के ज्ञान के।
एक-एक यज्ञ के कई हजार वार करै
सब गुण-गान करै नित भगवान के॥105॥

जब कि प्रतापभानु घोड़ा पे सवार भेल
करै लेॅ शिकार गेल विघिन पहाड़ पे।
नजर पे परि गेल सुअर विशाल एक
करने पिछेड़ गेल ओकरे फिरार में।
घोड़ा के आहट पर सुअर चौकन्न भेल
नजर परल तब ओकरोॅ सवार पे।
भागल सुअर तब पवन के वेग गहि
धरती-दुबकि रहै वाण के रोॅ वार पे॥106॥

कखनो प्रकट भेल, कखनो ओझल भेल
लुका छिपी होतें बड़ी दूर तक धैलकै।
निज बाहुबल के चुनौती मानलक राजा
जिद बान्हीं ओकरोॅ पिछेड़ बड़ी कैलकै।
भागैत सुअर तब घुसल गुफा में जाय
लेकिन प्रताप भानु पार नाहिं पैलकेॅ॥
लौटल, विपिन बीचे रस्ता भटकि गेल
इहो भटकाव बड़ी दूर भटकैलै॥107॥

लौटला त भूख आरो प्यास से व्याकुल राजा
कहीं पर पानी के ठेकान न देखलका।
इहें बीच नजर परल एक कुटि पर
राजा हरसल सोची नीक ठौर पैलका।
लेकिन ऊ कुटि एक छली तपसी के छल
राजा ऊ छली के छल समझी न पैलका।
घोड़ा से उतरि राजा तपसी के पास आवी
दोनों हाथ जोड़ी केॅ प्रणाम हुन्हीं केलका॥108॥

मुनि के रोॅ भेष में ऊ एन्हों एक राजा छेलै
जेकरो प्रताप भानु राज छिनी लेलकै।
युद्ध में न सकल त सैना रथ छोड़ि-छाड़ि
जंगल में आबी क शरण तब लेलकै।
अप्पन कुसमय विचारी रणछोड़ राजा
राज-पाट सब चित से बिसारी देलकै।
लेकिन न भूलल अपन अपमान राजा
हार-पारि तपसी के रूप धरि लेलकै॥109॥

दोहा -

सहज पंथ छै संत के, जहाँ पुजावै भेष।
मुद्गल रीझै भेष पर, ज्ञानी-सूर-नरेश॥18॥

तपसी के भेष धरि, वन में ही रहि गेला
रसें-रसें क्रोध भी सुलगते ही रहलै।
कहाँ त, ऊ राजा छेलै, कहाँ ई दरिद्र रूप
आतम-गलानी नित पलते ही रहलै।
एक ही नजर में प्रतापभानु के चिन्हल
लेकिन बनल अनचिन्ह जकाँ रहलै।
परम चतुर राजा सहज प्रतापभानु
विपरित काल चित चेत कहाँ रहलै॥110॥