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अंगिका रामायण / तेसरोॅ सर्ग / भाग 4 / विजेता मुद्‍गलपुरी

जय आरू विजय के दोसर जनम भेल
एक भेल रावण जे जगत रूलैलकै।
जदपी जनम भेल छेलय पुलस्य कुल
तदपी स्वभाव निशिचर के रोॅ पैलकै।
दोसरोॅ असुर कुंभकरण महान वली
जगत में सब से अतुल्य वल पैलकै।
एकरे विनाश आरू जगत के त्राण लेली
परब्रह्म आवी केॅ मनुज रूप धैलकै॥31॥

धरम सनातन के छोड़ी केॅ विश्रवा पुत्र
अलग से एक रक्ष धरम चलैलकै।
सुर-नर-नाग-यक्ष-दानव अेॅ दैत्य गण
सब के रावण रक्ष धरम पढ़ैलकै।
डर चन्द्रहास के भुवन भर नंगा नाचै
राक्षस धरम वहुजन अपनैलकै।
जगत में धरम सनातन के रक्षा लेल
परब्रह्म आवी क मनुज रूप धैलकै॥32॥

एक वेर कश्यप अदिति दोनों दमपति
जंगल में जाय घनघोर तप कैलका।
राम सुमरैतें जब राम जी प्रकट भेल
पूत रूप में हरि पावै के वर पैलका।
दोसरोॅ जनम में फलित वरदान भेल
वहेॅ दशरथ अेॅ कौशल्या रूप धैलका।
वहेॅ वरदान के पालन हेतु परब्रह्म
राम जी कौशल्या हितकारी कहलैलका॥33॥

एक वेर असुर जालंधर से तंग आवी
देवगण भाँति-भाँति-लड़ी-भिड़ी हारलै।
सब सुर-नर-नाग जेकरा से हार मानै
जेकरा से शिव भी न पार पावेॅ पारलै।
जालंधर के धरम-पतनी जे महाँसती
सतित्व के वलें एक वाल न बिगड़लै
जेकरोॅ सतित्व भंग करै के सवाल पर
सब देवगण अभिशाप डरें डरलै॥34॥

जालंधर के धरम-पतनी छै विन्दा रानी
जेकरोॅ सतित्व में ही पति के रोॅ प्राण छै।
जब तक विन्दा के रोॅ सतित्व सुरक्षित छै
तब-तब जालंधर अति बलवान छै।
कोन विधि विन्दा के सतित्व के हरण होत
जालंधर वध के त एक ही निदान छै।
कौने जाय क करत विन्दा के सतित्व भंग
सब के त अपन-अपन प्रिय प्राण छै॥35॥

दोहा -

मुद्गल ताप सतित्व के, सब युग एक समान
जिनकर डर से हरि उठै, स्वतः आप भगवान।

विन्दा के सतित्व भंग करै लेली विष्णुदेव
अपने जालंधर के रूप धरि लेलकै।
पति के रूपोॅ में ऐलोॅ विष्णु के बिलोकि विन्दा
सतित्व के वलें पहचान करि लेलकै।
पति भगति से हरि भगति प्रवल भेल
रूप के भरम भी भ्रमित करि देलकै।
जिनकोॅ दरस लेल जुगति, जुटावै संत
बिन श्रम आवी क चकित करि देलकै॥36॥

विष्णु के बिचारी क फँसल द्वन्द बीच विन्दा
पति जालंधर के भौतिक सुख बुझलै।
जालंधर रूपमें ऊ हरि के स्वीकारलकि
जेकरा में उनका परम गति सूझलै।
सब कुछ जानी क भी अनजान बनी गेली
एकरे में ही ऊ हित आपन समुझली।
लेलकी स्वीकारि जालंधर रूप धारी हरि
जगतपति के निज पति जकाँ बुझली॥37॥

छल के रोॅ वल भेल विन्दा के सतित्व भंग
अपने खलित भेल बल जालंधर केॅ।
छल के सरन गही देवता सफल भेल
मनसा पुरन भेल तब हरिहर केॅ।
अबकी के युद्ध में सफल भेल देवगण
असगुन जकाँ विन्दा केॅ रोॅ अंग फरकेॅ।
एक के रोॅ बाद एक फेर असगुण भेल
बिन्दा के रॉे हिया धक-धक-धक धरकेॅ॥38॥

पति के रोॅ शव देखी व्यापी गेल मोह फेर
तब न सम्हलि सकली व्यथित मन के।
पति के रोॅ शव तव पकरी क कानै विन्दा
हँकरी क कानै गरियावै देवगन के।
अपनोॅ करल पर बड़ी पछतावै विन्दा
पगली के जका नौचै अपने ही तन के।
पति के स्वरूप ऐला कहिने जगत पति
जगत पूजै छै जिनकर आचरल के॥39॥

बार-बार अपना के भाँति-भाँति कोसै विन्दा
मन के व्यथा बड़ी व्यथित करी देलकै।
ज्ञान जे जगत रहै हरि के सानिध्य पावी
पति मोह फेरो से भ्रमित करी देलकै।
पति के मरन के सुमरि केॅ व्यथित विन्दा
क्रोध बस हरि के शापित करी देलकै।
बार-बार हरि जी के निठुर-पत्थर कहै
हरि शालीग्राम के रोॅ रूप धरी लेलकै॥40॥

दोहा -

रसें-रसें बढ़ते रहल, विन्दा के रोॅ पीर।
संग सहाय न देख केॅ, भेली बहुत अधीर॥8॥

सोरठा -

भेली बड़ी हतास, अविशापित करि विष्णु के।
धीरज रहल न पास, कहि उठली धरती फटोॅ॥1॥

सवैया -

हालि फटोॅ धरती, अविलम्ब
यहाँ अब और सहाय न दोसर!
आस करौं किनकोॅ जननी
जग में अब और उपाय न दोसर!
काल्ह सतित्व बलें सवला हम
छी अवला अब आय न दोसर!
झाँपि रखोॅ अपनोॅ अँचरा तर
माय रखोॅ बिलमाय, न दोसर!॥1॥