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"अंगिका रामायण / तेसरोॅ सर्ग / भाग 6 / विजेता मुद्‍गलपुरी" के अवतरणों में अंतर

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राम जी से माँगि लेव सुन्दर स्वरूप हम
 
राम जी से माँगि लेव सुन्दर स्वरूप हम
 
मोहित जे रूप विश्वमोहिनी के करत॥60॥
 
मोहित जे रूप विश्वमोहिनी के करत॥60॥
 
राम सुमिरैतें तब राम जी प्रकट भेल
 
नारद समझला कि भल होनिहार छै।
 
संतन के परम हितैषी प्रभु रामचन्द्र
 
जग हितकारी राम परम उदार छै।
 
कहलन स्वंवर आयोजन के बात ऋषि
 
कहलन व्याह के रोॅ हमरो विचार छै।
 
अपनोॅ स्वरूप नाथ हमरा उधार दियौ
 
एतने कृपा से नाथ हमरोॅ उद्धार छै॥61॥
 
 
कहलन राम एक बात सुनोॅ देवऋषि
 
करब जतन हम तोहर उद्धार के।
 
जेना कि सफल वैद्य कुपथ बरजि राखै
 
सब जुगती करै सफल उपचार के।
 
ओहने करब भल आपनोॅ भगत जानी
 
बाँधि राखोॅ गाँठ इहो उत्तम विचार के।
 
दिल में जों राम अेॅ दिमाग मंे जों काम बसै
 
एहनोॅ सुरत अनभल होनिहार के॥62॥
 
 
माँगलन देवऋषि हरि से स्वरूप जब
 
हरि अरथे ही मरकट रूप पैलका।
 
हरि पर परम विश्वास राखि देवऋषि
 
सादर स-प्रेम ताथ आपनोॅ झुकैलका।
 
गरव से गरदन ऊँच करि देवऋषि
 
स्वंवर में जाय तब आसन जमैलका।
 
लेने जयमाला विश्वमोहिनी बाहर ऐली
 
उचकि-उचकि ऋषि चेहरा घुमैलका॥63॥
 
 
सोरठा -
 
 
चित पर चढै न राम, नारद व्याकुल व्याह लेॅ।
 
चढ़ल माँथ पर काम, हरि भाया गिरिजा सुनोॅ॥3॥
 
 
अजब स्वरूप भेल देवऋषि नारद के
 
जेकरोॅ मरम कोनो समझी न पैलकै।
 
जौने-जौने मिलल पुरूष पहचान वाला
 
नारद कही क सब शीश के झुकैलकै।
 
विश्वमोहिनी के मरकट के दरस भेल
 
घुमियो न मुख ऊ नारद दिश कैलकै।
 
जौने दिश देखै विश्व मोहिनी पतिम्वारा के
 
तौने दिश नारद अपन रूख कैलकै॥64॥
 
 
एहनोॅ आतुर भेल देव ऋषि नारद कि
 
स्वंबर के मरजादा समझी न पैलकै।
 
वरमाला लेने विश्वमोहिनी घुमल फिरै
 
सभा में तेनाही ऋषि आसन हिलैलकै।
 
राम के भगत के छै काम नचावनिहार
 
सुन्दर भरम जे ऋषि के भरमैलकै।
 
नारद के संग शिव गण जौने ऐलोॅ रहै
 
देखी क उतावला ऊ गण मुसकैलकै॥65॥
 
 
नारद के देखि-देखि हँसै दोनों शिवगण
 
अजब स्वरूप करूणा निधान देलकै।
 
ऋषि के रोॅ पीछू-पीछू चलै दोनो शिवगण
 
वाह-वाह कहि क गुमान भरि देलकै।
 
भगत के सदैव कल्याण चाहै वाला हरि
 
आजु देवऋषि के कल्याण करि देलकै।
 
हँसियो मजाक न समझि पैला देवऋषि
 
गरव से सिर के उतान करि लेलकै॥66॥
 
 
वहेॅ सभा बीच राजकुमर के रूप धरि।
 
अपने विराजमान छेला भगवान भी।
 
जयमाल मिलल कुमर रूप हरि के ही
 
हरि के समान न दोसर रूपवान भी।
 
भगत के मोह भ्रम-फाँस से निकलौ लेली
 
रचै परपंच खुद करूण निधान भी।
 
भूप सिनी जौने कि गरब से फूलैत रहै
 
बहुत दुखित भेल; मन निमझान भी॥67॥
 
 
शिव के रोॅ गण उपहास करि नारद के
 
उनकरा दिश ऊ कमंडल बढ़लकै
 
हरि  से जे माँगने छेलाथ रूपवान रूप
 
कपि के स्वरूप तब जल में दिखैलकै।
 
देखते ही देवऋषि तुरते बिगरि गेल
 
पहिने ई बात कहिनें न ई बतैलकै।
 
एतनो मे बुझल कि देवऋषि नारद छी
 
उलटे हमर उपहास ई उड़ैलकै॥68॥
 
 
दोहे -
 
 
कामजीत भी नै रहल; नै भेटल जयमाल।
 
हँसल शंभुगण देख केॅ; नारद के हय हाल॥12॥
 
 
शाप दै लेॅ लेलका कमंडल से जल तब
 
दोनों शिव के रोॅ गण जान लेॅ केॅ भागलै।
 
कहीं शाप देॅ केॅ यही ठाम न भसम करेॅ
 
दोनो गण इहेॅ अनुमान लेॅ केॅ भागलै।
 
मिलल दोनों के निशिचर हुऐ के रोॅ शाप
 
भगवन पर क्रोध तीन गुण बाढ़लै।
 
मन में बेचैनी आरो क्रोध से शरीर काँपै
 
कमलापती के ऊ पिछेड़ करेॅ लागलै॥69॥
 
 
मारग में नारद के श्रीपति से भेंट भेल
 
देखलन साथें विश्वमोहिनी कुमारी के।
 
जिनका कि सत सब जग उपकारी कहै
 
देखलन नारद अपन अपकारी के।
 
देखते ही तलबा के लहर मगज पर
 
सुरू करि देलन बौछार तब गारी के।
 
बड़ी इरसालु-धूर्त-स्वारथी अेॅ चालू राम
 
चूनी-चूनी गारी बकौ कपटी जोगारी के॥70॥
 
 
सागर से निकलल चौदह रतन तब
 
शिव के सहज जानी जहर पिलैलका।
 
अपने त लछमी के वाम दिश धारलन
 
असुर के मदिरा के कलश थम्हैलका।
 
अपने पराय गेला अमरित घट लेॅ केॅ
 
आरो देवता जाति के अमर बनैलका।
 
हरदम मन में कपट व्यवहार राखै
 
भगतो के जग उपहास ई करैलका॥71॥
 
 
परम स्वतंत्र कोनो रोकै-टोकै वाला नै छोॅ
 
मन में जे फूरै छोॅ तों कहेॅ काज करै छेॅ।
 
ऊँच के रोॅ नीच आरू नीच के रोॅ ऊँच करोॅ
 
होनी के अहोनी; अनहोनी होनी करै छै।
 
अनकर हित देखि सदैव जरनिहार
 
अनकर शुभ में विघन तोहे करै छेॅ।
 
तोहरोॅ ऊपर जौने परम विश्वास राखै
 
ओकरोॅ विश्वास के भंजन तोंहें करै छै॥72॥
 
 
कहलन नारद कि ठिके करलेॅ तों नाथ
 
अबकी सबक हम तोहरा सिखाय छी।
 
बहुत के साथ तों बहुत बेर छल कैलेॅ
 
अबकी तोहर हम आदत भुलाय छी।
 
भगत के शाप अब शीश पर धरोॅ हरि
 
अखनी से हम अब तोहरा दुरावै छी।
 
मन त करै छेॅ अभिशाप सें भसम करौं
 
चीर अविनाशी बूझी हम सकुचाय छी॥73॥
 
 
सोरठा -
 
 
उतरल सिर से काम; क्रोध चढ़ल तब माथ पर।
 
भेल विधाता वाम; माा महा तमोगुनी॥4॥
 
 
कहलन नारी लेली हमरा बेचैन कैलेॅ
 
ई बेचैनी तोहरो पिछेर कभी करतोॅ।
 
स्वंवर से जेना विश्वमोहिनी हरण कैलेॅ
 
तोहरो नारी के निशिचर कानो हरतो
 
जेना तोहेॅ हरि, करि देलेॅ मरकट रूप
 
वहेॅ मरकट उपकार तोरोॅ करतोॅ।
 
हमरोॅ ई शाप अखनी से गाँठ बान्ही राखोॅ
 
बिन भोगने ई शाप टारने न टरतोॅ॥74॥
 
 
नारद के शाप शीश धरलन रमापति
 
छन में ही आपन माया समेट लेलका।
 
देखलन नारद न कहि विश्वमोहिनी के
 
आरो न कहीं ऊ लछमी के ही देखलका।
 
फटते ही माया मन के विकार मिट गेल
 
नारद अपन चित राम दिश कैलका।
 
बार-बार दोष ऋषि आपनोॅ स्वीकार करि
 
कमलापति के ऊ चरण धरि लेलका॥75॥
 
 
नारद के मन में बसल अपराध बोध
 
ऋषि के जे अधिक व्यथित करि देलके।
 
बड़ी अजगुत छै ई माया भगवान के रोॅ
 
जौने कि भगत के भ्रमित करि देलकै।
 
एक ही श्रीपति सब भ्रम के मिटावै वाला
 
फेरो ज्ञान जोत प्रज्वलित करि देलकै।
 
देलकाय नारद के शिव के सहस्त्र नाम
 
तप-वल फेनु से उदित करि देलकै॥76॥
 
 
पावी शिव-सत्-नाम चलि भेला देवऋषि
 
शिव जी के गण देवऋषि के देखलका।
 
दोनो गण ऐला; दोनों हाथ जोरी ठार भेला
 
कर जोरी छमा के रोॅ याचना करलका।
 
दोनो आवी ऋषि के चरण पर गीर गेला
 
केना होत हमरोॅ उद्धार से पुछलका।
 
दोनों के विनय सुनी नारद द्रवित भेला
 
ऋषि तब संत के धरम निमहैलका॥77॥
 
 
कहलन नारद कि सुनोॅ शिव गण दोनों
 
तोरोॅ बाहुबल डरेॅ जब जग डरतोॅ।
 
तोरोॅ अतुलित धन-वैभव विलोकि जब
 
सब जग तोरा आगू शिश नत् करतोॅ।
 
नित बाहुबलें जब जगत के जीत लेवेॅ
 
जगत उद्धार लेली हरि अवतरतोॅ।
 
परम, दयालु हरि; जगत कृपालु हरि
 
निशिचर योनी से उद्धार तोरोॅ करतोॅ॥78॥
 
 
सोरठा -
 
 
भेल एक अवतार; हरि नारद के शाप बस।
 
जगत प्रतारनिहार; लंकापति शिवगण बनल॥5॥
 
 
एक अवतार के रोॅ कारण इहो भवानी
 
प्रति अवतार हरि चरित सुहावै छै।
 
हर एक कलप के हरि अवतार कथा
 
भाँति-भाँति प्रेम से सुकवि संत गावै छै।
 
घुमि-घुमि राम के चरित कथा वाँचै वाला
 
कलप विभेद हरि चरित सुनावै छै।
 
मोह से ग्रसित जन; कलप विभेद कथा
 
भ्रमित विचार बस समझी न पावै छै॥79॥
 
 
सुनलक भारद्वाज कलप विभेद कथा
 
जौने भाँति शिव पारवती के सुनैलके।
 
आरो एक जनम के कारण खगेश सुनोॅ
 
अलख अगोचर स्वरूप केना धैलकै।
 
जे कथा जगत के सकल भ्रम नाश करै
 
हरी क अमंगल के मंगल बनैलके।
 
कलप विभेद हरि चरित अनंत सुनोॅ
 
मति अनुसार जौने संत सब गैलके॥80॥
 
 
कहलन शिव जी कि सुनोॅ गिरिनन्दनी हे
 
एक अवतार कथा आरो हम गाय छी।
 
मनु आरो सतरूपा दोनो से मनुष्य वंश
 
केना विस्तार भेल से कथा सुनाय छी।
 
स्वयंभु मनु के पुत्र प्रतापी उत्तानपाद
 
आरो प्रियव्रत सुकुमार के गिनाय छी।
 
मनु के रोॅ एक सुकुमारी धिया वेदहुति
 
उनकर कथा सनछेप में सुनाय छी॥81॥
 
 
प्रतापी उत्तानपाद के धरम-पतनी में
 
दू-टा नाम सुनीति-सुरूचि के गिनाय छी।
 
सुनीति के पुत्र भेल धु्रव जी हरि भगत
 
सुनीति के फल केना ध्रुव छै बताय छी।
 
आरो सुरूचि के पुत्र उत्तम कुमार भेल
 
सुरूचि के फल हम उत्तम बताय छी।
 
भनत विजेता सदा सुनीति के संग रहोॅ
 
सुरूचि के फल धु्रव-अटल न पाय छी॥82॥
 
 
राजा स्वयंभु मनु के छोटा बेटा प्रियव्रत
 
बालपन में ही जे संन्यास रूप धैलकै।
 
देलकन ब्रह्मा जी गृहस्त धर्म के रोॅ ज्ञान
 
तब मालिनी के संग व्याह हुन्हीं कैलकै।
 
पुत्र हेतु यज्ञ भेल; फल में मिरित पुत्र
 
जौने फल दम्पति के बिचलित कैलकै।
 
उनकर हित में प्रकट भेलि छठि मैया
 
जौने मृत बालक के छन में जिलैलकै॥83॥
 
 
सवैया -
 
 
भेल छठी सगरो जग पूजित
 
लोग सदा छठ के यश गावै।
 
बालक जन्म के ठीक छठा दिन
 
पूजि छठि सब दोष नसावै।
 
भाग लिखै छठि बालक के
 
हरि संकट-शेषेॅ निरोग बनावै।
 
बालक के हित चाहनिहार
 
उलीच अशीष उछाह मनावै॥31॥
 
 
स्वयंभु मनु के सुकुमारी धिया वेदहुति
 
ऋषि करदम से जेकर व्याह कैलका।
 
तिनकर पुत्र जग बिदित कपिल मुनि
 
जगत में जौने शांख्य-शास्त्र निरमैलका।
 
चौथापन मंे प्रवेश कैलका स्वयंभु मनु
 
वान प्रस्थ धरम सहजें अपनैलका।
 
तीरथ भ्रमण करि; हरि सुमिरन करि
 
रूप दरसन करि अतमा जुरैलका॥84॥
 
 
दोहा -
 
 
मोह न घर परिवार के; नै विशेष कुछ चाह।
 
मन रमलोॅ छै राम में; हियमें परम उछाह॥13॥
 
 
सब से प्रथम ऐला तीरथ नैमिसारण्य
 
तीरथ के फल संत दरसन कैलका।
 
घुमि-घुमि सुनलन वेद अेॅ पुराण कथा
 
घुमि-घुमि चारो धाम तीरथ नहैलका।
 
द्वादश आखर मंत्र चित्त धरि; तप करि
 
वासुदेव चरण कमल अपनैलका।
 
अन-जल वारि नृप, फल के अहार धरि
 
कामना बिसारी घनघोर तप कैलका॥85॥
 
 
तप-थल बेठी मनु आरो सतरूपा दोनो
 
द्वादश आखर मंत्र चित सें भजलका।
 
सीत आरू ताप सही, वारिस बतास सही
 
सब उतपात सही तप न तजलका।
 
बार-बार ब्रह्मा-विष्णु आरो महादेव ऐला
 
माँगु-माँगु-माँगु वर कही क जगैलका।
 
मनु महाराज परब्रह्म के दरस चाहै
 
कोनो वरदान हुन्हीं चित में न धैलका॥86॥
 
 
निसकाम भगति के मन में धरि क दोनों
 
सब सुख वारि घनघोर तप कैलका।
 
तेईस सहस्त्र सम्वत तक दोनों प्राणी
 
ध्यान धरि माता कुण्डलिनी के जगैलका।
 
अगुण अखण्ड जौने अनादि अनन्त जौने
 
जौने ब्रह्मा-हरि-शिव के भी निरमैलका।
 
जगत में जिनकर यश चारो वेद गावै
 
दोनो प्राणी उनकर दरसन पैलका॥87॥
 
 
कान में परल जब अमृत समान ध्वनि
 
माँगु-माँगु-माँगु वर सुनी मनु जगलै।
 
शबद सुनैतें तब प्रभुल्लित मन भेल
 
ताहि फल साधना सफल भेल लगलै।
 
दिव्य ज्योति परल कि तन निरमल भेल
 
अखने भवन से फिरल सन लगलै।
 
मनु महाराज असतुती करेॅ लागलाथ
 
तप के प्रभाव देखि तीनो ताप भगलै॥88॥
 
 
जिनकर स्वरूप महादेव के चित्त बसै
 
जिनकर नाम सब संत सिनी गाय छै।
 
जिनकर रूप काग-भुसुण्डी के हिय बसै
 
अगुन-सगुन वेद जिनका बताय छै।
 
बस वहेॅ रूप आवी सामने में ठार भेल
 
जौने रूप सब ऋषि-मुनि के लुभाय छै।
 
मनु महाराज के रोॅ माथ पर हाथ धरि
 
करूणा निधान मनेमन मुसकाय छै॥89॥
 
 
दोहा -
 
 
हरि तब भेल प्रकट जहाँ, हरसल मनु महाराज।
 
जे स्वरूप मुनि मन बसै, दरस भेल से आज॥14॥
 
 
जिनकर सानिध्य कलप तरू के समान
 
जिनकर यश कामधेनु के समान छै।
 
जौने जड़ चेतन के स्वामी कहलावै आरू
 
ब्रह्म-विसनु-महेश नित करै ध्यान छै।
 
जिनकर वल पर धरति ठिकलोॅ होलोॅ
 
जिनकर वलें असथिर आसमान छै।
 
भनत विजेता राजा मनु सनमुख तौने
 
प्रकट भेलोॅ छै वहेॅ राम भगवान छै॥90॥
 
 
नीलवर्ण कमल समान श्याम वर्ण वाला
 
जिनका कि देखि कामदेव भी लजाय छै।
 
सरद के चाँद जकाँ जिनकर मुख सोहै
 
गला के रोॅ तीन रेखा अजब बुझाय छै।
 
लाल रंग ओठ, मुख-नाक अति सुन्दर छै
 
हँसि चाँदनी जकाँ उजास भरि जाय छै।
 
कमल नयन, मनोहर चितवन हरि
 
भगत के जौने बरवस ही लुभाय छै॥91॥
 
 
टेढ़ोॅ कामदेव के धनुष जकाँ भौंह लागै
 
दिव्य छै ललाट आरू तिलक सोहाय छै।
 
कान में कुण्डल सिर मुकुट सोहायमान
 
घुघरैलोॅ लट सहजें लटकि जाय छै।
 
रतन जटित हार गला लटकलोॅ होलोू
 
गरदन जेना सिंह सरिस बुझाय छै।
 
सुन्दर जनेऊ, करधनी, तरकस वाण
 
अनुपम छवि बड़ी जिया ललचाय छै॥92॥
 
 
जिनकर अंश से जगत जीव उपजल
 
जिनकर अंश से ई माया उपजल छै।
 
ब्रह्मा-विष्णु आरो शिव छेका जिनकर अंश
 
जिनकर शक्ति से ई जगत अचल छै।
 
लछमी-ब्रह्माणी अेॅ शिवानी तीन महाशक्ति
 
जिनकर बलें सत जग में अटल छै।
 
भनत ‘विजेता’ तीनो लोक, तीनो काल में ई
 
जिनकर बल से धरम निशचल छै॥93॥
 
 
शोभा के समुद्र जकाँ हरि के स्वरूप मनु
 
एक बेर देखलक, देखते ही रहलै।
 
एक पल के भी लेल पलक न झपकल
 
प्रेम अश्रुधारा निरझर जकाँ बहलै।
 
आनन्द आधीन देह के सेॅ सुध बिसरल
 
शरण गहल चित चेत कहाँ रहलै!
 
सिर परसी क तब लेलन उठाय हरि
 
इहेॅ विधि प्रभु के रोॅ प्रभुता निमहलै॥97॥
 
 
दोहा -
 
 
जे सुन्दर सत् काम सन, जिनका सन नै आन।
 
सब उपमा से छै परे, करूणा पति भगवान॥15॥
 
 
हरि आबी कहलन वर माँगोॅ, वर माँगोॅ
 
कोनो वर मनु-सतरूप के न फुरलै।
 
परम पुरूष के स-नैन दरसन भेल
 
सकल मनोरथ तुरत आबी पुरलै।
 
फेरो मनु महाराज मन में संकोच राखि
 
एक वेर यातना के तरफ बहुरलै।
 
नाथ हम चाहैत छी तोहरे समान पुत्र
 
बस एक याचक के एतना ही जुरलै॥95॥
 
 
मनु के बचन सुनि करूणा निधान हरि
 
कहलन हमरा समान कहाँ आन छै।
 
जगत के भोग तजि हमरोॅ चाहत राखै
 
एन्हों प्राणी जगत में बड़ी भाग्यवान छै।
 
नृप तारेॉ पुत्र बनी अपने आयब हम
 
कही क बहुत खुश करूणा निधान छै।
 
सुनि क विनित भाव कहलकि सतरूपा
 
हमरो चाहत में त उहेॅ वरदान छै॥96॥
 
 
आरो एक बात तब कहलकि सतरूपा
 
अपनोॅ भगत सन नाथ नेह राखियै।
 
वहेॅ सुख, वहेॅ, गति आरो वहेॅ भगति भी
 
आरो ओनाही अपन शरण में राखियै।
 
ओनाही विवेक-बुद्धि, रहन-सहन सब
 
घटेॅ न ई नेह कृपा एतना टा राखियै।
 
सुनते ही एवमस्तु कहलन कृपा सिन्धु
 
कहलन धरम सहेजी चित राखियै॥97॥
 
 
पुत्र में अगाध प्रेम माँगलन मनु जेना-
 
मणि बिन फणि आरो जल बिन मीन छै।
 
हमरा त दियौ नाथ एहन अगाध प्रेम
 
भगत जेना कि नित भगति में लीन छै।
 
जेला न चकोर कभी चाँद के विलोकि थकै
 
जेना कि जीवोॅ के तन प्राण के अधीन छै।
 
एन्होॅ वर माँगी मनु हरि के चरण गहै
 
जेना कोनो दाता के चरण गहै दीन छै॥98॥
 
 
जब तोहें होबेॅ मनु अवध नरेश आरू
 
सत्रूपा अवध के रानी तब बनती।
 
तब तहाँ आबी हम बनब तोहरा पूत
 
जहाँ कि हमर माता सत्रूपा बनती।
 
एतना कहि क हरि अंतरधियान भेल
 
परब्रह्म के भी माता पलना में आनती।
 
माता सत्रूपा तब वर हरखिल भेलि
 
अपनोॅ उदर से नारायण के जनती॥99॥
 
 
दोहा -
 
 
मनु-सत्रूपा प्रेम बस, पैलन ई आशीश।
 
ऐता इनका गोद में, बालक बनि जगदीश॥16॥
 
 
कहै याज्ञवलक जी, सुनोॅ ऋषि भारद्वाज
 
ई कथा कहेश पारवती के सुनैलकै।
 
मनु-सतरूपा बड़ी आनन्द मगन भेल
 
पूत रूपें हरि के पावै के वर पैलकै।
 
हरि के कहल अनुसार मनु-सतरूपा
 
दोनो जाय अमरावती में बास कैलकै।
 
अवध में वहेॅ दशरथ अेॅ कौशल्या भेल
 
बाल लीला देखि दोनों जनम जुरैलकै॥100॥
 
 
सुनोॅ भारद्वाज एक आरो अवतार कथा
 
पारबती के जे महादेव जी सुनैलकै।
 
कैकय देशोॅ में एक राजा सत्यकेतु रहै
 
धरम के बलें राज आपन चलैलकै।
 
बड़ी नीतिवान, तेजवंत अेॅ प्रतापी रहै।
 
विश्व के नरेश जिनकर, यश गैलकै।
 
पुत्र ने प्रतापभानु, आरो अरिमरदन
 
दू टा वलशाली गुणवंत पुत्र पैलके॥101॥
 
 
बड़का पूतोॅ के सब राज-पाट सौपी राजा
 
तप हेतु जंगल के राह धरि लेलकै।
 
राज-काज पावी तब प्रतापी प्रतापभानु
 
धरम के धारी राज आपन चलैलकै।
 
सगरो दुहाई परै, धन्य हो प्रताप भानु
 
राज-काज हेतु वेद विधि अपनैलकै।
 
राज में न पाप कहीं, कोनो भी संताप नाही
 
चारो दिश धरम के अलख जगैलकै॥102॥
 
 
राजा के रोॅ मंत्री छेलै बुद्धिमान धर्मरूची’
 
भाई छेलै बलवान, सेना चतुरंगिनी।
 
जेकरा कि बलें राजा जगत विजेता भेल
 
जिनकर सेना कई-एक अक्-छोहिनी।
 
निज सैन्य-वलेॅ बेलें सातो द्वीप जीत ऐला
 
राजा चक्रवर्ती भेला जीत पूरे धरनी।
 
राज के रोॅ जीती सब राजा के अभय करि
 
शान्ति बिसतारै सब सेना शस्त्र वाहिनी॥103॥
 
 
धरम-अरथ-काम, सब सुख भोगै राजा
 
सब नार-नारी सुचत्रि-सुविचार के।
 
बिन भेद-भाव कैने सम रूप न्याय मिलै
 
पूजै सब कानुन, न्यायिक व्यवहार के।
 
राजा-गुरू-वैद-संत-देव आरू ब्राह्मण के
 
सब दै सम्मान, सेवै बिरिध लाचार के।
 
वेद में जे राजा के रोॅ धरम बतैलोॅ गेलै
 
राजा राखलक सब नीति में उतारि केॅ॥104॥
 
 
दोहा -
 
 
शासन भानु प्रताप के, लगै राम के राज।
 
सुन्दर-सुखद समाज छै, न्यायोचित हर काज॥17॥
 
 
मन-कर्म-वाणी वासुदेव के चरण सौपी
 
सगरो पसारै यश ज्ञान-विगियान के।
 
भाँति-भाँति दान अेॅ मंदिर निरमान करै
 
नित ही वखान करै कथा अेॅ पुरान के।
 
नगर में कुआँ अेॅ तलाव खुदबाबै आरू
 
सागर कहावै नृप भगती के ज्ञान के।
 
एक-एक यज्ञ के कई हजार वार करै
 
सब गुण-गान करै नित भगवान के॥105॥
 
 
जब कि प्रतापभानु घोड़ा पे सवार भेल
 
करै लेॅ शिकार गेल विघिन पहाड़ पे।
 
नजर पे परि गेल सुअर विशाल एक
 
करने पिछेड़ गेल ओकरे फिरार में।
 
घोड़ा के आहट पर सुअर चौकन्न भेल
 
नजर परल तब ओकरोॅ सवार पे।
 
भागल सुअर तब पवन के वेग गहि
 
धरती-दुबकि रहै वाण के रोॅ वार पे॥106॥
 
 
रात अँधियारोॅ जानि बोलल कपट मुनि
 
रात भर रूकि जा सबेरे तों निकलिहोॅ।
 
घनघोर जंगल के रसता अबूझ बड़ी
 
यहाँ रूकि अपनोॅ थकान नाश करिहोॅ।
 
बगल के वृक्ष में ही बाँधि द अपन घोड़ा
 
दोनों मिली रात भर हरि के सुमरिहोॅ।
 
करै लेॅ चाहै छी हम तोॅरोॅ उपकार अब
 
अपनोॅ मानोॅ में कोनो कामना के धहिहोॅ॥113॥
 
 
जेना कि बहेलिया के बाँसुरी के तान सुनी
 
मोहक हिरण आबी खुद बंधी जाय छै।
 
जेना कि कमल के रोॅ कोमल फाँसो के बीच
 
आबी केॅ भँवर अपने ही फँसी जाय छै।
 
जेना कि चकोर आग चाँद के प्रसाद बूझी
 
चाँद के रोॅ चाहत में लपकी केॅ खाय छै।
 
वैसी ना बाहर के आडम्बर के सच मानी
 
संत के कपट में सुजन फँसी जाय छै॥114॥
 
 
दोहा -
 
 
मीड़ बोल सुनि केॅ फँसल, राजा भानुप्रताप।
 
फँसि कपटी के पेंच में, आप रहल नै आप॥19॥
 
 
बड़ी मीठ-मीठ बालै छेलै ऊ कपटि मुनि
 
मन में ऊ कपटी-कुचाल-छल भरने।
 
एक तेॅ ऊ बेरी छेलै, दोसर स्वजाति छलै
 
राजा छिनै के छलै गलानी चित धरने।
 
मुनि के प्रतापभानु सिद्ध संत बूझि गेल
 
रहल स्वप्रेम बस चरण पकड़ने।
 
कहलक मुनि सब गरिबोॅ के एक नाम
 
विधि ही छै हमरोॅ भिखरी नाम धरने॥115॥
 
 
‘एकतनु’ जानि क न करोॅ अचरज तोहें
 
तप वलें दुनियाँ में कुछ भी आसान छै।
 
तप वल से ही हरि जग के पालन करै
 
तप वल से विधाता करै निरमान छै।
 
तप वल से ही शंभु सृष्टि के संघार करै
 
सूरज के तप फल नबका विहान छेॅ।
 
तप के प्रभाव सब जानै सिद्ध संत जन
 
तप के ही बस में सदैव भगवान छै॥116॥
 
 
दोहा -
 
 
‘काग भुसुण्डी तप वलेॅ तजै न अपनोॅ देह।
 
मुनि बोलल-राजा सुनोॅ, करोॅ न तों संदेह॥20॥
 
 
फेरू ‘एकतनु’ कहेॅ लागल पुरान कथा
 
करम-धरम-इतिहास के बतैलकै।
 
ज्ञान अेॅ विज्ञान कथा, जग उतपत्ति कथा
 
पालन-संघार-बिस्तार से बतैलकै।
 
सुनि तपसी के बस भेॅ गेला प्रतापभानु
 
तब ऊ अपन नाम सच बतलैलकै।
 
‘गोपनीयता हरेक देश के धरम छिक’
 
”झूठ राजनीति के शृंगार“ बतलैलके॥117॥
 
 
तों छिकेॅ प्रतापभानु, तोरोॅ पिता ‘सत्यकेतु’
 
गुरू के कृपा से हम सब बात जानै छी।
 
हमरा से छिपल न जगत के कोनो बात
 
हम त पवन के भी रूख पहचानै छी।
 
अपनोॅ हानी बिचारी सच न कहै छी कहीं
 
जब कि जगत के मरम सब जानै छी।
 
तोहरोॅ स्वभाव देखि ममता उमरि गेल
 
अब होत तोर हित सच हम जानै छी॥118॥
 
 
बहुत प्रसन्न भेलौं तोहरा ऊपर, हम
 
मागि ल तों कोनो वर, जौने मन भाय छै!
 
तप वलें दुरलभ सुलभ बनै छै राजा
 
माँगि ल तों जौने सुख तोहरा लुभाय छै।
 
माँगलक राजा मिरतु-दुख रहित तन
 
जगत के सब सुख जाहि में समाय छै।
 
माँगलक बिरिध अबस्था रहित तन
 
जेकरा से भौतिक समस्त सुख पाय छै॥119॥
 
 
माँगलक राजा सौ कलप अकंटक राज
 
कोनो न हरावें मारेॅ हमरा समर में।
 
हमरोॅ प्रताप अब सुर लोक तक जानेॅ
 
हमरोॅ किरती गुजेॅ सब घर-घर में।
 
कहलन तपसी एहनका होतोॅ परन्तु
 
एक-टा बाधा छोॅ बड़ोॅ तप के डगरे में।
 
सब होतोॅ बस एक ब्राह्मण के छोड़ी राजा
 
ब्राह्मण के तप गुँजै त्रिभुवन भर में॥120॥
 
 
जगत में सब से कठीन तप ब्राह्मण के
 
ब्राह्मण जो रीझै तीनो लोक बस होय छै।
 
जेकरा ऊपर एक ब्राह्मण सहाय रहेॅ
 
तेकरोॅ विनाश तीनो काल में न होय छै।
 
ब्राह्मण के जानोॅ देवता के प्रतिनिधि छिक
 
धरम के जौने कि काँवर नाकी ढोय छै।
 
तोरोॅ न विनाश होथौं ब्राह्मण के शाप बिना
 
ब्राह्मण कुपित फुसो बात पर होय छै॥121॥
 
 
दोहा -
 
 
बाभन देव समान छै, जानै जगत प्रताप।
 
विप्र चरित कपटी भखै, श्रोता भानुप्रताप॥21॥
 
 
जुगती करी क तोहें ब्राह्मण के बस करोॅ
 
तीनो काल में न तोरोॅ नाश हुए पारथौं।
 
हमरोॅ मिलन के प्रसंग के बिसारी राखोॅ
 
ब्राह्मण के छोड़ी कोनो वाल न बिगारथौं।
 
ई प्रसंग कभी-कही-कोनो ठाम बाची देबेॅ
 
एक भूल जिन्दगी के सब सुख जारथौं।
 
ब्राह्मण अेॅ गुरू जेकरोॅ छै उबारनिहार
 
सनमुख ओकरा महान-वलि हारथौं॥122॥
 
 
कोन विधि होत नाथ ब्राह्मण हमर बस
 
बोलल प्रतापभानु हमरा बताय देॅ।
 
तोरोॅ सन दुनियाँ में मोर उपकारी कहाँ
 
ब्राह्मण रिझावै के जुगति समझाय देॅ।
 
तपसी कहलकै कि सुनि लेॅ प्रतापभानु
 
हमरा तों एक उलझन से बचाय देॅ।
 
प्रण अेॅ परोपकार दोनों में सवल कौन?
 
मन के रोॅ द्वन्द छिक, बात फरियाय देॅ॥123॥
 
 
जब से जनम भेल, तहिया से अब तक
 
गाँव अेॅ नगर के त मुँह न देखलियै।
 
बर-बर सब आबी क मनाबी गेल
 
किनको न, अब तक, घर पर, गेलिए।
 
लेकिन ई काज बिना गेने त दुसह लागै
 
द्वन्द बीच हम त उलंग फँसि गेलियै।
 
बिन गेने तोर काज अब बिगरत जनु
 
सोची रहलो छी केना रसता निकालियै!॥124॥
 
 
बोलल प्रतापभानु एक बात सुनोॅ नाथ
 
संत के स्वभाव उपकार रत होय छै।
 
बड़ा आदमी जेना कि छोट पे सनेह राखै
 
जेना परवत सिर बिरिछ धरय छै।
 
जेना कि अगाध सिन्धु सिर पर झाग धरै
 
वसुन्धरा धल निज, सिर पे धरय छै।
 
वैसी-ना हे नाथ उपकार हमरा पे करोॅ
 
गुरू-पिता-माता जे बालक पे करय छै॥125॥
 
 
बोलल कपटि मुनि मंत्र के प्रभाव जानोॅ
 
जेतने गुपुत राखोॅ तेतने फलय छै।
 
मंतर के धार तलवार से भी तेज जानोॅ
 
पवन के वेग जकाँ मंतर चलय छै।
 
मंत्र के प्रभाव बाँधि करब तोहर काज
 
जे न कोनो करि सकै मंत्रर करय छै।
 
वैसी ना तोहर हित करब प्रतापभानु
 
जेना उपकार गुरू शिष्य के करय छै॥126॥
 
 
कुण्डलिया -
 
 
शब्द शक्ति के जानि लेॅ, जैसें गाली एक
 
चाप बढ़ावै रक्त के, नाशै तुरत विवेक।
 
नाशै तुरत विवेक नशा के जकतें बौरै,
 
तखनी गाली महज शब्द नस-नस में दौड़ै।
 
नै तनियों-सा बोध रहै छै ज्ञान भक्ति के
 
ऐसन छै परभाव अजूबा शब्द शक्ति के॥1॥
 
 
हम छिकौ राजा पाक शास्त्र में प्रवीण सुनोॅ
 
हमरोॅ बनैलोॅ होलोॅ जौने कोनो खाय छै!
 
जब हम पकवै छी पाक बसीकरण त
 
परम विरोधी आबी दस बनी जाय छै।
 
हमरोॅ मानोॅ त तोहें ब्राह्मण ज्योनार करोॅ
 
हमरा बुझावै एक सहज उपाय छै।
 
अपने रिन्हब हम, तोहें परसनिहार
 
देखिहो ब्राह्मण केना असतुति गाय छै॥127॥
 
 
ब्राह्मण उदर में तों अन्न के हवन करोॅ
 
एकरोॅ बहुत ही मधुर फल मिलतोॅ।
 
तोहें एक बरस के एहनोॅ संकल्प करोॅ
 
तोहरोॅ विजय ध्वज धुरि से न हिलतोॅ।
 
ब्राह्मण जों खुश, उनकर परिजन खुश
 
ब्राह्मण जों खुश सब देव खुश मिलतोॅ।
 
ब्राह्मण के पूजन-हवन जप-तप के रोॅ
 
तोरोॅ अन्न खैनें सब फल तोरे मिलतोॅ॥128॥
 
 
तोहरोॅ पुरोहित के हरि क अनाब हम
 
अपने पुराहित के रूप हम धरबोॅ।
 
साल भर रहब तोहर भनसिया बनि
 
ब्राह्मण ज्योनार के परण पूरा करबो।
 
हम भनसिया आरो तोहें परसनिहार
 
ऊपर से मंतर बसीकरण भरबोॅ।
 
जगत विजेता तोहें बनवेॅ प्रतापभानु
 
तोरा लेली तप के आहुत हम करबोॅ॥129॥
 
 
बात गेल पुरन त ‘रात बड़ी चढ़ी गेल
 
तपसी कहलकै, आराम तोहें करि लेॅ।
 
सुतले में तोरा हम घर पहुँचाबी देबोॅ
 
तप के प्रभाव के अपन चित धरि लेॅ।
 
सब विधि करब तोहर हित सुनोॅ राजा
 
आतमा में अटल विश्वास तोहें भरि लेॅ।
 
तोरा से मिलब हम आबी क तेसर दिन
 
ई रहस्य के तोहें रहस्य जकाँ धारि लेॅ॥130॥
 
 
कालकेतु कपढ़ी मुनि के रोॅ परम मित्र
 
सूअर बनी केॅ जे राजा के भटकैलकै।
 
राजा सुतलै तेॅ कालकेतु निशिचर ऐलै
 
आबी केॅ अपन मित्र धरम निभैलकै।
 
कपटी मुनी के संग निशिचर कालकेतु
 
छल परपंच रचि योजना बनैलकै।
 
दोनो के रहै प्रतापभानु से पुरूब वैर
 
बदला सधावै के जुगत दोनो कैलकै॥131॥
 
 
सोरठा -
 
 
कलप तरू विश्वास, कपट अमरवेली लता।
 
घुन-षड-दुरगुण पास, भीतर से दुर्बल करै॥6॥
 
 
कालकेतु निशिचर छल में प्रवीण छलै
 
छल-वल से जे देवतो के भरमैलकै।
 
एक सौ पुत्तर छेलै आरो सात भाय छेलै
 
धरती पे जौने उतपात बड़ी कैलकै।
 
सब के समर में पछारी क प्रतापभानु
 
राज-पाट ओकरोॅ अपन बस कैलकै।
 
जान लेॅ केॅ भागी गेल असगर कालकेतु
 
लुकि-छिपि जंगल में दिवस बितैलकै॥132॥
 
 
तपसी अेॅ कालकेतु दोनो ही नरेश छल
 
दोनो के बसल छल राज मोह मन में।
 
दोनो राजा ही भानुप्रताप के मारल छेलै
 
डर से छिपल छलै आवी दोनो वन में।
 
दोनो के रोॅ शत्रु एक ही प्रतापभानु छेलै
 
जेकरा कारण दुख भरल जीवन में।
 
आजु आबी छल में फँसल छै प्रतापभानु
 
दोनो भिरलोॅ छै वहै जुगती जतन में॥133॥
 
 
शत्रु आरो रोग के तों छोट बुझि क न टारोॅ
 
दोनो के तों जानि लेॅ घातक परिणाम छै।
 
कहलक कालकेतु आब तों निचिंत रहोॅ
 
आब त बहुत ही आसान भेलोॅ काम छै।
 
छन में ही मायावी के माया बिसतार भेल
 
जे माया के लेली निश्चिर बदनाम छै।
 
सुतलें नरेश राजभवन पहुँची गेल
 
निशाचरी माया के अजब सब काम छै॥134॥
 
 
राजा के पुरोहित के भेल अपहरण अेॅ
 
कालकेतु आबी पुरोहित रूप धैलकै।
 
राजा जब उठल त उठतें चकित भेल
 
अपना के जब राजभवन में पैलकै।
 
कहीं ई रहस्य जग विदित न हुए पारेॅ
 
राजा अब चुपके जंगल रूख कैलकै।
 
दुपहर चढ़ल त राजा घुरि घर ऐला
 
ई रहस्य राजा केकरो भी न बतैलकै॥135॥
 
 
राजा के रोॅ मन बुद्धि कपटी मुनि में बसै
 
सुध-बुध तजि कपटी मुनि में रमलै।
 
पुरोहित रूप धरि आवी गेल कालकेतु
 
बेसुध बनल राजा छल के न गमलै।
 
तुरत नौतल गेल एक लाख ब्राह्मण के
 
आवी गेल सब बिप्र एक टा न कमलै।
 
छह रस आरो चार तरह पकल पाक
 
एक लाख ब्राह्मण ज्योनार  हेतु जमलै॥136॥
 
 
दोहा -
 
 
साकाहारी जीव जब, करै मांश आहार।
 
बदलै मांशाहारि सन, सब ओकरोॅ व्यवहार॥22॥
 
 
भाँति-भाँति व्यंजन में मांश के प्रयोग भेल
 
ई रहस्य त भानुप्रताप भी न जानलै।
 
उहो में कि भोजन में मानव के मांश होत
 
ई त कोनो अनुमान में न अनुमानलै।
 
परम विश्वास राखि कपटी मुनि में राजा
 
एकरे में तब ऊ अपन हित जानलै।
 
परसै के बेर बात अपने प्रकट भेल
 
तब राजा माथ पर हाथ धरि कानलै॥137॥
 
 
ब्राह्मण बैठल जब भोजन पंगत पर
 
भोजन परसतें आकाशवाणी भेॅ गेलै।
 
जेनाही उठल रहै हाथ में पहिल कौर
 
आकाशवाणी ने सब के सचेत केॅ गेलै।
 
ब्राह्मण भोजन तजोॅ, आपन धरम राखोॅ
 
भोजन में नर-मांश के प्रयोग भेॅ गेलै।
 
सुनतें आकाशवाणी ब्राह्मण क्रोधित भेल
 
सब एक स्वर में राजा के शाप देॅ गेलै॥138॥
 
 
ब्राह्मण बोली उठल, हे अधरमी नरेश
 
तोहरोॅ विनाश होतोॅ अधरम काज से।
 
कुल परिवार के समेत निशिचर होवेॅ
 
धरम खलित होतोॅ अब तोरोॅ राज से।
 
हमरोॅ धरम के त राम जी राखनिहार
 
तोहर व्यतित होतें राज-पाट नाश होतोॅ
 
एक दिन दूर होवेॅ नृप के समाज से॥139॥
 
 
एक बेर फेर भेल वैसी ना आकाशवाणी
 
कि राजा प्रतापभानु के न कोनो दोष छै।
 
एक कपटी के रोॅ फेरा में छै परल राजा
 
भेल अनपेक्षित मर्दो में मदहोश छै।
 
सुनते आकाशवाणी ब्राह्मण चकित भेल
 
आरो भानुप्रतापोॅ के उड़ी गेलोॅ होश छै।
 
राजा गेल वहाँ जहाँ भोजन बनैत रहै
 
देखलक ठीके बहाँ आदमी के गोस छै॥140॥
 
 
कहीं भी न भनसिया ब्राह्मण से भेंट भेल
 
धरती पे राजा निमझानं भेॅ केॅ गिरलै।
 
सच-सच बात राजा सब के रोॅ कहीं गेल
 
सुनते ही तब सब के रोॅ सिर फिरलै।
 
निकलल शाप कोनो जतन न फिरेॅ पारै।
 
शाप से प्रतापभानु चारो दिश घिरलै।
 
सुनि क खबर ई दुखित भेल पुरवासी
 
लागल सुरूज खनि धरती पे गिरलै॥141॥
 
 
दोहे -
 
 
मुद्गल कभी न भेल छै, छल के भल परिणाम।
 
जों कपटी कुछ नै करेॅ, तै पर भी वदनाम॥23॥
 
 
कपट और कुछ लै छिकै, छिकै हनित विश्वास।
 
दोहन करि विश्वास के, कपटी पुरवै आस॥24॥
 
 
जब कालकेतु गेल तपसी मुनि के पास
 
राजा के शापित वाली कथा ऊ सुनैलकै।
 
दोनों मिली बैठी क प्रपंच बिसतारलक
 
हारल नरेश सिनी सब के जुटैलकै।
 
भानु छे ढलान पर, आब ऊ प्रताप कहाँ?
 
शाप वाली बात बिसतारी क बतैलकै।
 
हारलोॅ राजा में फेरू भरी क आतम-बल
 
कालकेतु योजना सभे के समझैलकै॥142॥
 
 
योजना समझि सब हारलोॅ नरेश सिनी
 
डंका पीटी सगरो नगर घेरी लेलकै।
 
भाँति-भाँति युद्ध भेल, ठाम-ठाम युद्ध भेल
 
लड़ी-भिड़ी उनका तबाह करी देलकै;
 
कुल परिवार सब युद्ध में लड़ी मरल
 
राज-पाट, धन-कोश, सब हरि लेलकै।
 
लड़ी क मरल युद्ध बीच में प्रतापभानु
 
समर में पीठ राजा आपनोॅ न देलकै॥143॥
 
 
कहै याज्ञवलक जी, सुनोॅ ऋषि भरद्वाज
 
जिनका से विधना वेरूख बनी जाय छै।
 
उनकरा स्वजन भी शत्रु समान दिखै
 
ठाम-ठाम तिनका भी उनका डेराय छै।
 
हीत-मित-परिजन सब लागै यम सन
 
रसरी भी साँप जकाँ, उनका बुझाय छै।
 
अपनोॅ भी घर तब जेल के समान लागै
 
अपनोॅ ही देश परदेश बनी जाय छै॥144॥
 
 
सुनोॅ ऋषि दोसर जनम में प्रतापभानु
 
सब परिजन निशिचर तन पैलकै।
 
दस सिर वाला आरू बीस भूज धारी वीर
 
रावण प्रतापी अतुलित वल पैलकै।
 
राजा के रोॅ अनुज रहै रेॅ अरिमरदन
 
अगला जनम कुंभकरण कहैलकै।
 
राजा के रोॅ मंतरी जे रहै रेॅ धरम रूची
 
धरम में रूची विभीषण नाम पैलकै॥145॥
 
 
राजा के रोॅ पूत, परिजन अेॅ सेवक सिनी
 
सब आवी संगे निशिचर योनी पैलकै।
 
बड़ी वलशाली आरू बहुत मायावी सब
 
तीनों लोक में ई उतपात बड़ी कैलकै।
 
दुरजन-कुटिल-कठोर-अविवेकी सिनी
 
हिंसक-दुराचारी-अधरम मचैलकै।
 
सुर-नर-नाग-यक्ष-किन्नर-गंधर्व आदि
 
एक-एक करी केॅ ऊ सब के सतैलकै॥146॥
 
 
कुण्डलिया -
 
 
रावण में गुण बाप के, मिलल वेद के ज्ञान।
 
माता के गुण आसुरी, तिनकर हय संतान॥
 
तिनकर हय संतान, असुर दशकंधर प्रतापी।
 
महिमा बड़ी महान, लोक मंे दश दिश व्यापी॥
 
जिनकर भ्राता कुम्भकरण अरू भक्त विभीषण।
 
बैठल तप पर जाय भाय के साथें रावण॥2॥
 
 
रावण जनम भेल प्रतापी पुलस्य कुल
 
उनके से चारो वेद के रोॅ ज्ञान पैलकै।
 
पिता से मिलल रहै संस्कार तप के रोॅ
 
तीनो भाय बैठी के कठोर तप कैलकै।
 
तीनो के तपस्या देखी ब्रह्मा जी प्रसनन भेला
 
आरो ब्रह्मदेव से ऊ वरदान पैलकै।
 
दुनियाँ में कोनो शक्ति हमरा न मारी सकेॅ
 
बस नर-वानर दू जात के दुरैलकै॥147॥
 
 
हमहुँ रहौ रेॅ उमा ब्रह्मा के ही संग-संग
 
रावण के हम दोनों मिली वर देलियै।
 
तब कुंभकरण के पास हम दोनों गेलौं
 
आरू भयंकर रूप देखी क सोचलियै।
 
एकरोॅ आहार से जगत के उजार होत
 
तब हम दोनों सरसती सुमिरलियै।
 
उनकर प्रेरणा से माँगलक निन्द्रासन
 
इन्द्रासन माँगेॅ चाहै निन्द्रासन देलियै॥148॥
 
 
विभीषण माँगलक निस्काम भगती अेॅ
 
हरि के चरण के रोॅ भगती ऊ पैलकै।
 
तिनकर व्याह भेल सरमा सुन्दरी संग
 
वज्रज्वाला के कुंभकरण अपनैलकै।
 
रावण के व्याह भेल मंदोदरी संग-संग
 
दानवेन्द्र से जे उपहार में ऊ पैलकै।
 
सागर के मद्ध में सुहावनोॅ लंका नगर
 
नगर दशानन के बहुत लुभैलकै॥149॥
 
 
माता केकसी के संग रावण विचार करै
 
भाँति-भाँति के अनेक योजना बनैलकै।
 
लंका निशिचर कुल के रोॅ धरोहर छिक
 
रावण के तब माता केकसी पढ़लकै।
 
कोन विधि लंका पर भोर अधिपत्य होत
 
विधिवत रावण ई योजना बनैलकै।
 
रावण देखलकै कुवेर के विमान जब
 
तखने विमान पुस्पक ऊ टिकैलकै॥150॥
 
 
लंका के बसैनें रहै हेती-परहेती दैत्य
 
देवासुर युद्ध में पाताल सब भागलै।
 
लंका के मनोरम परम सुनसान देखि
 
यक्षपति वहाँ पे कुवेर रहेॅ लागलै।
 
बाहुबली रावण कुवेर के रोॅ यश सुनि
 
लंका हरपै के उतजोग करेॅ लागलै।
 
दशानन रावण के योजना सफल भेल
 
आक्रमण करते ही यक्ष सिनी भागलै॥15॥
 
 
दोहा -
 
 
दुनियाँ पर भारी परल लंका के रोॅ नाम।
 
उदित अरूण जकतें करै, सब टा देशप्रणाम॥25॥
 
 
जब भेल रावण के राजधानी लंकापुरी
 
सब राजा पर धौंस अपनोॅ जमैलकै।
 
आरो तीनो लोक में मचल हरकंप तब
 
धनपति से ऊ पुस्पक छिनी लैलकै।
 
दुनियाँ के बाहुबल अपनोॅ दिखावै लेली
 
कैलाश पर्वत छन में उठावी लेलकै।
 
निन्द से जगल जब कभी कुंभकरण तेॅ
 
दशो दिश में ऊ हरकंप करी देलकै॥152॥
 
 
सेना-सुख-संपत-प्रताप-बल-बुद्धि-यश
 
दिन दूना लोभ रात चारगुणा बढ़लै।
 
मेघनाद सन वलशाली पुत्र जब भेल
 
वल के रोॅ मद तब माथ पर चढ़लै।
 
दुरमुख-धूमकेतु-अकम्पन-अतिकाय
 
एकरा निहारी वल आर वेसी बढ़लै।
 
कुल परिवार सब देखि क अपार वल
 
सब के विचार अनाचार दिश बढलै॥153॥
 
 
वल के बिलोकी तब रावण कहलकै कि
 
जगत में महाबली निशिचर जाति छै।
 
निशचर के रोॅ सब काज में खलल डालै
 
देवता समाज सब बड़ उतपाती छै।
 
मानव के यज्ञ के रोॅ आश पे पलनिहार
 
विसनु भी असुर समाज लेली घाती छै।
 
जखनी दहारै कभी मेघ जकाँ मेघनाद
 
इरसा से जरी उठै इन्द्र के रोॅ छाती छै॥154॥
 
 
देवता के वल छिन एक ही विधि से होत
 
जब कि न यज्ञ भाग देवता के मिलतै।
 
यज्ञ भाग बिन सब देव दुरवल होत
 
निशिचर जाति में सहजें आवी मिलतै।
 
सब निशचर जाति यज्ञ के विरोधी बनोॅ
 
यज्ञ के मिंघारोॅ जहाँ कहीं यज्ञ मिलतै।
 
हम छी रावण हम जगत विजेता छिकौं
 
हमरा आदेश बिना पात भी न हिलतै॥155॥
 
 
लेॅ केॅ चन्द्रहास आरू मेघनाद साथ लेॅ केॅ
 
रावण चलल तीनो लोक के हरावै लेॅ।
 
जोने जोग-जप करै, जहाँ कोनो तप करै
 
चलल निशाचर ऊ सब के डरावै लेॅ।
 
कुवेर-वरूण-वायु-चन्द्रमा-अनल-यम
 
यलल रावण दास सब क बनावै लेॅ।
 
देवता-मनुष्य-सिद्ध-किन्नर-गंधर्व-नाग
 
पकड़ि-पकड़ि अरदास करवावै लेॅ॥156॥
 
 
देव-यक्ष-मनुष्य-गंधर्व आरू नागकन्याँ
 
जबरन व्याही क रावण घर लैलकै।
 
सब राजा के रोॅ शिरोमणी भेल दशानन
 
भुजवल के प्रताप सब के देखैलकै।
 
सब निशिचर भेल वेद के विरूद्ध अब
 
खोजि-खोजि सब यज्ञ-थल के मिटैलकै।
 
सब में निशाचर के गुण विद्यमान भेल
 
धरती बेचारी लोर आपनोॅ बहैलकै॥157॥
 
 
सोरठा -
 
 
त्रसित भेल सब संत, बेचारी धरती बनल।
 
रावण के रोॅ अंत, होतै ऐता राम जब॥7॥
 
 
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03:11, 5 जुलाई 2016 के समय का अवतरण

ई प्रसंग सुनि सब देवता चकित भेल
नारद के यश तब सब मिली गैलकै।
नारद के मन अभिमान घर करि गेल
अपना के ऋषि कामजीत बतलैलके।
अपनोॅ ही पीठ अपने से बार-बार ठोकी
आबी स-प्रसंग महादेव के सुनैलकै।
नारद के मन में देखी क अभिमान शिव
एक-टा जरूरी बरजन बतलैलकै॥51॥

कहलन महादेव एक बात सुनोॅ ऋषि
ई प्रसंग हरि पास भुलियो न कहिहॉे।
यदि कहिं रमापति चरयो चलावेॅ तब
उनका प्रनाम करि बस चुप रहिहोॅ।
शिव केरोॅ सीख ऋषि उलटे समझि गेल
भारद्वाज एहनोॅ के वाह-वाह कहिहोॅ।
नीक बात सुनि जौने उलटा अरथ धारै
ओहनोॅ के उचित भी कहना न चाहियोॅ॥52॥

शिवके कहल बात चित न चढ़ल तब
काम-जीत कथा ब्रह्मदेव के सुनैलकै।
अपनोॅ ही पीठ अपने से थपकावै सन
अपनोॅ प्रशंसा अपने ही मुख गैलकै।
मन न भरल तब चलि भेला-क्षीर-सिन्धु
वीणा के मधुर धुन, हरि गुण गैलकै।
कोन विधि राम भजि काम के जीतल गेल
काम के चरित ऋषि राम के सुनैलकै॥53॥

दोहा -

सब दोषोॅ से पैग छै, अपनोॅ मुख यश गान।
उनका अभिमानी गनै, मान हनै भगवान॥10॥

कामजीत के रोॅ मद सिर पे सवार भेल
नारद अपन यश फेरो दोहरैलकै।
नारद के मद से भरल जानि रमापति
विधि बिपरित जानि वाह-वाह कैलकै।
जग हितकारी हरि नारद के हित लेली
मनेमन गुपुत परन एक कैलकै।
सब के रोॅ मान-मद-मोह के मेटनिहार
नारद के लेली एक जुगती जुटैलकै॥54॥

जिनकर मन में तनिको अभिमान आवै
सब अभिमान तब राम जी मिटाय छै।
जेना कि चतुर वैद्य रोगी के सड़ल अंग
निरमम बनी काटी काटी केॅ हँटाय छै।
नारद कें मोह-अभिमान के मिटावै लेली
रमापति तुरत मंे जुगति भिराय छै।
छन में ही सब सत्-योजन विशाल एक
माया पति माया के नगर निरमाय छै॥55॥

माया के नगर में बसल राजा शीलनिधि
जिनकर बेटी विश्वमोहिनी कुमारी छै।
जिनकर रूप के न शेष भी बखानी सकै
त्रिभुवन सुन्दरी, अनुप-रूप धारी छै।
तिनकर स्वंवर रचल गेल नगर में
अजब छै मोहक, नगर मनोहारी छै।
ठाम-ठाम भाट आरू चारण गायन करै
राजा शील निधि के रोॅ वलि-वलिहारी दै॥56॥

शीलनिधि के रोॅ राज देखलन देवऋषि
रचना जहाँ के सुर-पुर के समान छै।
सब नर-नारी लागै सुन्दर सुशील सभ्य
वनिक-धनिक-यति बड़ी गुणवान छै।
आवी गेल राजा के महल तब देवऋषि
भाट आरू चारण जहाँ कि करै गान छै।
शील निधि के रोॅ कन्याँ विश्वमोहिनी कुमारी
सुनलक नारद कि बड़ी भाग्यवान छै॥57॥

राजा शील निधि तब धिया विश्वमोहिनी के
हस्तरेखा आवी क नारद के देखैलकै।
नारद देखलकाथ कन्या के रोॅ भाग्यरेखा
कुछ बात कही कुछ बात के छिपैलकै।
इनकर वर तीनो लोग के विजेता होत
चीर अविनाशी होत चरचा न कैलकै।
अपनोॅ विवाह के रोॅ कामना मनोॅ में राखी
उलट-पुलट कुछु वाँचि केॅ सुनैलके॥58॥

दोहा -

हरि के माया में फँसल, ज्ञानी-गुनी-प्रवीन।
कामजीत नारद बनल, फेरो काम अधीन॥11॥

राम जी के प्रेरणा से, विश्वमोहिनी के रूप
नारद के क्षण में वे-मत्त करि देलकै।
चित्त में बसल जब विश्वमोहिनी के रूप
नारद के सब सुध-बुध हरि लेलकै।
तखने से छुटि गेल राम जी के ध्यान, हुन्ही-
जखने से व्याह के विचार करि लेलकै।
राम के बिसारी, काम के रोॅ सुमिरन करै
छुटि गेल जोग चित भोग भरि लेलकै॥59॥

विश्वमोहिनी के हेतु नारद विचार करै
विश्वसुन्दरी केना क कोन विधि बरतै।
जटा-जूट धारी ऋषि परम उदास भेल
एहनोॅ में सुन्दरी पसन्द केना करतै।
एक क्षण लेल फेर राम जी के ध्यान भेल
परम हितैसी उपकार हुन्हीं करतै।
राम जी से माँगि लेव सुन्दर स्वरूप हम
मोहित जे रूप विश्वमोहिनी के करत॥60॥