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| राम जी से माँगि लेव सुन्दर स्वरूप हम | | राम जी से माँगि लेव सुन्दर स्वरूप हम |
| मोहित जे रूप विश्वमोहिनी के करत॥60॥ | | मोहित जे रूप विश्वमोहिनी के करत॥60॥ |
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− | राम सुमिरैतें तब राम जी प्रकट भेल
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− | नारद समझला कि भल होनिहार छै।
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− | संतन के परम हितैषी प्रभु रामचन्द्र
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− | जग हितकारी राम परम उदार छै।
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− | कहलन स्वंवर आयोजन के बात ऋषि
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− | कहलन व्याह के रोॅ हमरो विचार छै।
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− | अपनोॅ स्वरूप नाथ हमरा उधार दियौ
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− | एतने कृपा से नाथ हमरोॅ उद्धार छै॥61॥
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− | कहलन राम एक बात सुनोॅ देवऋषि
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− | करब जतन हम तोहर उद्धार के।
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− | जेना कि सफल वैद्य कुपथ बरजि राखै
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− | सब जुगती करै सफल उपचार के।
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− | ओहने करब भल आपनोॅ भगत जानी
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− | बाँधि राखोॅ गाँठ इहो उत्तम विचार के।
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− | दिल में जों राम अेॅ दिमाग मंे जों काम बसै
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− | एहनोॅ सुरत अनभल होनिहार के॥62॥
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− | माँगलन देवऋषि हरि से स्वरूप जब
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− | हरि अरथे ही मरकट रूप पैलका।
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− | हरि पर परम विश्वास राखि देवऋषि
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− | सादर स-प्रेम ताथ आपनोॅ झुकैलका।
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− | गरव से गरदन ऊँच करि देवऋषि
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− | स्वंवर में जाय तब आसन जमैलका।
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− | लेने जयमाला विश्वमोहिनी बाहर ऐली
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− | उचकि-उचकि ऋषि चेहरा घुमैलका॥63॥
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− | सोरठा -
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− | चित पर चढै न राम, नारद व्याकुल व्याह लेॅ।
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− | चढ़ल माँथ पर काम, हरि भाया गिरिजा सुनोॅ॥3॥
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− | अजब स्वरूप भेल देवऋषि नारद के
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− | जेकरोॅ मरम कोनो समझी न पैलकै।
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− | जौने-जौने मिलल पुरूष पहचान वाला
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− | नारद कही क सब शीश के झुकैलकै।
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− | विश्वमोहिनी के मरकट के दरस भेल
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− | घुमियो न मुख ऊ नारद दिश कैलकै।
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− | जौने दिश देखै विश्व मोहिनी पतिम्वारा के
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− | तौने दिश नारद अपन रूख कैलकै॥64॥
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− | एहनोॅ आतुर भेल देव ऋषि नारद कि
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− | स्वंबर के मरजादा समझी न पैलकै।
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− | वरमाला लेने विश्वमोहिनी घुमल फिरै
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− | सभा में तेनाही ऋषि आसन हिलैलकै।
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− | राम के भगत के छै काम नचावनिहार
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− | सुन्दर भरम जे ऋषि के भरमैलकै।
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− | नारद के संग शिव गण जौने ऐलोॅ रहै
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− | देखी क उतावला ऊ गण मुसकैलकै॥65॥
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− | नारद के देखि-देखि हँसै दोनों शिवगण
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− | अजब स्वरूप करूणा निधान देलकै।
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− | ऋषि के रोॅ पीछू-पीछू चलै दोनो शिवगण
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− | वाह-वाह कहि क गुमान भरि देलकै।
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− | भगत के सदैव कल्याण चाहै वाला हरि
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− | आजु देवऋषि के कल्याण करि देलकै।
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− | हँसियो मजाक न समझि पैला देवऋषि
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− | गरव से सिर के उतान करि लेलकै॥66॥
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− | वहेॅ सभा बीच राजकुमर के रूप धरि।
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− | अपने विराजमान छेला भगवान भी।
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− | जयमाल मिलल कुमर रूप हरि के ही
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− | हरि के समान न दोसर रूपवान भी।
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− | भगत के मोह भ्रम-फाँस से निकलौ लेली
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− | रचै परपंच खुद करूण निधान भी।
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− | भूप सिनी जौने कि गरब से फूलैत रहै
| |
− | बहुत दुखित भेल; मन निमझान भी॥67॥
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− | शिव के रोॅ गण उपहास करि नारद के
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− | उनकरा दिश ऊ कमंडल बढ़लकै
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− | हरि से जे माँगने छेलाथ रूपवान रूप
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− | कपि के स्वरूप तब जल में दिखैलकै।
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− | देखते ही देवऋषि तुरते बिगरि गेल
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− | पहिने ई बात कहिनें न ई बतैलकै।
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− | एतनो मे बुझल कि देवऋषि नारद छी
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− | उलटे हमर उपहास ई उड़ैलकै॥68॥
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− | दोहे -
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− | कामजीत भी नै रहल; नै भेटल जयमाल।
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− | हँसल शंभुगण देख केॅ; नारद के हय हाल॥12॥
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− | शाप दै लेॅ लेलका कमंडल से जल तब
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− | दोनों शिव के रोॅ गण जान लेॅ केॅ भागलै।
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− | कहीं शाप देॅ केॅ यही ठाम न भसम करेॅ
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− | दोनो गण इहेॅ अनुमान लेॅ केॅ भागलै।
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− | मिलल दोनों के निशिचर हुऐ के रोॅ शाप
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− | भगवन पर क्रोध तीन गुण बाढ़लै।
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− | मन में बेचैनी आरो क्रोध से शरीर काँपै
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− | कमलापती के ऊ पिछेड़ करेॅ लागलै॥69॥
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− |
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− | मारग में नारद के श्रीपति से भेंट भेल
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− | देखलन साथें विश्वमोहिनी कुमारी के।
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− | जिनका कि सत सब जग उपकारी कहै
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− | देखलन नारद अपन अपकारी के।
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− | देखते ही तलबा के लहर मगज पर
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− | सुरू करि देलन बौछार तब गारी के।
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− | बड़ी इरसालु-धूर्त-स्वारथी अेॅ चालू राम
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− | चूनी-चूनी गारी बकौ कपटी जोगारी के॥70॥
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− | सागर से निकलल चौदह रतन तब
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− | शिव के सहज जानी जहर पिलैलका।
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− | अपने त लछमी के वाम दिश धारलन
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− | असुर के मदिरा के कलश थम्हैलका।
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− | अपने पराय गेला अमरित घट लेॅ केॅ
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− | आरो देवता जाति के अमर बनैलका।
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− | हरदम मन में कपट व्यवहार राखै
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− | भगतो के जग उपहास ई करैलका॥71॥
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− |
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− | परम स्वतंत्र कोनो रोकै-टोकै वाला नै छोॅ
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− | मन में जे फूरै छोॅ तों कहेॅ काज करै छेॅ।
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− | ऊँच के रोॅ नीच आरू नीच के रोॅ ऊँच करोॅ
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− | होनी के अहोनी; अनहोनी होनी करै छै।
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− | अनकर हित देखि सदैव जरनिहार
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− | अनकर शुभ में विघन तोहे करै छेॅ।
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− | तोहरोॅ ऊपर जौने परम विश्वास राखै
| |
− | ओकरोॅ विश्वास के भंजन तोंहें करै छै॥72॥
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− |
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− | कहलन नारद कि ठिके करलेॅ तों नाथ
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− | अबकी सबक हम तोहरा सिखाय छी।
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− | बहुत के साथ तों बहुत बेर छल कैलेॅ
| |
− | अबकी तोहर हम आदत भुलाय छी।
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− | भगत के शाप अब शीश पर धरोॅ हरि
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− | अखनी से हम अब तोहरा दुरावै छी।
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− | मन त करै छेॅ अभिशाप सें भसम करौं
| |
− | चीर अविनाशी बूझी हम सकुचाय छी॥73॥
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− | सोरठा -
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− | उतरल सिर से काम; क्रोध चढ़ल तब माथ पर।
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− | भेल विधाता वाम; माा महा तमोगुनी॥4॥
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− | कहलन नारी लेली हमरा बेचैन कैलेॅ
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− | ई बेचैनी तोहरो पिछेर कभी करतोॅ।
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− | स्वंवर से जेना विश्वमोहिनी हरण कैलेॅ
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− | तोहरो नारी के निशिचर कानो हरतो
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− | जेना तोहेॅ हरि, करि देलेॅ मरकट रूप
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− | वहेॅ मरकट उपकार तोरोॅ करतोॅ।
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− | हमरोॅ ई शाप अखनी से गाँठ बान्ही राखोॅ
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− | बिन भोगने ई शाप टारने न टरतोॅ॥74॥
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− | नारद के शाप शीश धरलन रमापति
| |
− | छन में ही आपन माया समेट लेलका।
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− | देखलन नारद न कहि विश्वमोहिनी के
| |
− | आरो न कहीं ऊ लछमी के ही देखलका।
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− | फटते ही माया मन के विकार मिट गेल
| |
− | नारद अपन चित राम दिश कैलका।
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− | बार-बार दोष ऋषि आपनोॅ स्वीकार करि
| |
− | कमलापति के ऊ चरण धरि लेलका॥75॥
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− |
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− | नारद के मन में बसल अपराध बोध
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− | ऋषि के जे अधिक व्यथित करि देलके।
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− | बड़ी अजगुत छै ई माया भगवान के रोॅ
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− | जौने कि भगत के भ्रमित करि देलकै।
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− | एक ही श्रीपति सब भ्रम के मिटावै वाला
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− | फेरो ज्ञान जोत प्रज्वलित करि देलकै।
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− | देलकाय नारद के शिव के सहस्त्र नाम
| |
− | तप-वल फेनु से उदित करि देलकै॥76॥
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− |
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− | पावी शिव-सत्-नाम चलि भेला देवऋषि
| |
− | शिव जी के गण देवऋषि के देखलका।
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− | दोनो गण ऐला; दोनों हाथ जोरी ठार भेला
| |
− | कर जोरी छमा के रोॅ याचना करलका।
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− | दोनो आवी ऋषि के चरण पर गीर गेला
| |
− | केना होत हमरोॅ उद्धार से पुछलका।
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− | दोनों के विनय सुनी नारद द्रवित भेला
| |
− | ऋषि तब संत के धरम निमहैलका॥77॥
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− |
| |
− | कहलन नारद कि सुनोॅ शिव गण दोनों
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− | तोरोॅ बाहुबल डरेॅ जब जग डरतोॅ।
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− | तोरोॅ अतुलित धन-वैभव विलोकि जब
| |
− | सब जग तोरा आगू शिश नत् करतोॅ।
| |
− | नित बाहुबलें जब जगत के जीत लेवेॅ
| |
− | जगत उद्धार लेली हरि अवतरतोॅ।
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− | परम, दयालु हरि; जगत कृपालु हरि
| |
− | निशिचर योनी से उद्धार तोरोॅ करतोॅ॥78॥
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− | सोरठा -
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− | भेल एक अवतार; हरि नारद के शाप बस।
| |
− | जगत प्रतारनिहार; लंकापति शिवगण बनल॥5॥
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− | एक अवतार के रोॅ कारण इहो भवानी
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− | प्रति अवतार हरि चरित सुहावै छै।
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− | हर एक कलप के हरि अवतार कथा
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− | भाँति-भाँति प्रेम से सुकवि संत गावै छै।
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− | घुमि-घुमि राम के चरित कथा वाँचै वाला
| |
− | कलप विभेद हरि चरित सुनावै छै।
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− | मोह से ग्रसित जन; कलप विभेद कथा
| |
− | भ्रमित विचार बस समझी न पावै छै॥79॥
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− | सुनलक भारद्वाज कलप विभेद कथा
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− | जौने भाँति शिव पारवती के सुनैलके।
| |
− | आरो एक जनम के कारण खगेश सुनोॅ
| |
− | अलख अगोचर स्वरूप केना धैलकै।
| |
− | जे कथा जगत के सकल भ्रम नाश करै
| |
− | हरी क अमंगल के मंगल बनैलके।
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− | कलप विभेद हरि चरित अनंत सुनोॅ
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− | मति अनुसार जौने संत सब गैलके॥80॥
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− | कहलन शिव जी कि सुनोॅ गिरिनन्दनी हे
| |
− | एक अवतार कथा आरो हम गाय छी।
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− | मनु आरो सतरूपा दोनो से मनुष्य वंश
| |
− | केना विस्तार भेल से कथा सुनाय छी।
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− | स्वयंभु मनु के पुत्र प्रतापी उत्तानपाद
| |
− | आरो प्रियव्रत सुकुमार के गिनाय छी।
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− | मनु के रोॅ एक सुकुमारी धिया वेदहुति
| |
− | उनकर कथा सनछेप में सुनाय छी॥81॥
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− | प्रतापी उत्तानपाद के धरम-पतनी में
| |
− | दू-टा नाम सुनीति-सुरूचि के गिनाय छी।
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− | सुनीति के पुत्र भेल धु्रव जी हरि भगत
| |
− | सुनीति के फल केना ध्रुव छै बताय छी।
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− | आरो सुरूचि के पुत्र उत्तम कुमार भेल
| |
− | सुरूचि के फल हम उत्तम बताय छी।
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− | भनत विजेता सदा सुनीति के संग रहोॅ
| |
− | सुरूचि के फल धु्रव-अटल न पाय छी॥82॥
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− | राजा स्वयंभु मनु के छोटा बेटा प्रियव्रत
| |
− | बालपन में ही जे संन्यास रूप धैलकै।
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− | देलकन ब्रह्मा जी गृहस्त धर्म के रोॅ ज्ञान
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− | तब मालिनी के संग व्याह हुन्हीं कैलकै।
| |
− | पुत्र हेतु यज्ञ भेल; फल में मिरित पुत्र
| |
− | जौने फल दम्पति के बिचलित कैलकै।
| |
− | उनकर हित में प्रकट भेलि छठि मैया
| |
− | जौने मृत बालक के छन में जिलैलकै॥83॥
| |
− |
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− | सवैया -
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− |
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− | भेल छठी सगरो जग पूजित
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− | लोग सदा छठ के यश गावै।
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− | बालक जन्म के ठीक छठा दिन
| |
− | पूजि छठि सब दोष नसावै।
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− | भाग लिखै छठि बालक के
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− | हरि संकट-शेषेॅ निरोग बनावै।
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− | बालक के हित चाहनिहार
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− | उलीच अशीष उछाह मनावै॥31॥
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− |
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− | स्वयंभु मनु के सुकुमारी धिया वेदहुति
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− | ऋषि करदम से जेकर व्याह कैलका।
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− | तिनकर पुत्र जग बिदित कपिल मुनि
| |
− | जगत में जौने शांख्य-शास्त्र निरमैलका।
| |
− | चौथापन मंे प्रवेश कैलका स्वयंभु मनु
| |
− | वान प्रस्थ धरम सहजें अपनैलका।
| |
− | तीरथ भ्रमण करि; हरि सुमिरन करि
| |
− | रूप दरसन करि अतमा जुरैलका॥84॥
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− | दोहा -
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− | मोह न घर परिवार के; नै विशेष कुछ चाह।
| |
− | मन रमलोॅ छै राम में; हियमें परम उछाह॥13॥
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− |
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− | सब से प्रथम ऐला तीरथ नैमिसारण्य
| |
− | तीरथ के फल संत दरसन कैलका।
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− | घुमि-घुमि सुनलन वेद अेॅ पुराण कथा
| |
− | घुमि-घुमि चारो धाम तीरथ नहैलका।
| |
− | द्वादश आखर मंत्र चित्त धरि; तप करि
| |
− | वासुदेव चरण कमल अपनैलका।
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− | अन-जल वारि नृप, फल के अहार धरि
| |
− | कामना बिसारी घनघोर तप कैलका॥85॥
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− | तप-थल बेठी मनु आरो सतरूपा दोनो
| |
− | द्वादश आखर मंत्र चित सें भजलका।
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− | सीत आरू ताप सही, वारिस बतास सही
| |
− | सब उतपात सही तप न तजलका।
| |
− | बार-बार ब्रह्मा-विष्णु आरो महादेव ऐला
| |
− | माँगु-माँगु-माँगु वर कही क जगैलका।
| |
− | मनु महाराज परब्रह्म के दरस चाहै
| |
− | कोनो वरदान हुन्हीं चित में न धैलका॥86॥
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− |
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− | निसकाम भगति के मन में धरि क दोनों
| |
− | सब सुख वारि घनघोर तप कैलका।
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− | तेईस सहस्त्र सम्वत तक दोनों प्राणी
| |
− | ध्यान धरि माता कुण्डलिनी के जगैलका।
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− | अगुण अखण्ड जौने अनादि अनन्त जौने
| |
− | जौने ब्रह्मा-हरि-शिव के भी निरमैलका।
| |
− | जगत में जिनकर यश चारो वेद गावै
| |
− | दोनो प्राणी उनकर दरसन पैलका॥87॥
| |
− |
| |
− | कान में परल जब अमृत समान ध्वनि
| |
− | माँगु-माँगु-माँगु वर सुनी मनु जगलै।
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− | शबद सुनैतें तब प्रभुल्लित मन भेल
| |
− | ताहि फल साधना सफल भेल लगलै।
| |
− | दिव्य ज्योति परल कि तन निरमल भेल
| |
− | अखने भवन से फिरल सन लगलै।
| |
− | मनु महाराज असतुती करेॅ लागलाथ
| |
− | तप के प्रभाव देखि तीनो ताप भगलै॥88॥
| |
− |
| |
− | जिनकर स्वरूप महादेव के चित्त बसै
| |
− | जिनकर नाम सब संत सिनी गाय छै।
| |
− | जिनकर रूप काग-भुसुण्डी के हिय बसै
| |
− | अगुन-सगुन वेद जिनका बताय छै।
| |
− | बस वहेॅ रूप आवी सामने में ठार भेल
| |
− | जौने रूप सब ऋषि-मुनि के लुभाय छै।
| |
− | मनु महाराज के रोॅ माथ पर हाथ धरि
| |
− | करूणा निधान मनेमन मुसकाय छै॥89॥
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− |
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− | दोहा -
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− |
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− | हरि तब भेल प्रकट जहाँ, हरसल मनु महाराज।
| |
− | जे स्वरूप मुनि मन बसै, दरस भेल से आज॥14॥
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− |
| |
− | जिनकर सानिध्य कलप तरू के समान
| |
− | जिनकर यश कामधेनु के समान छै।
| |
− | जौने जड़ चेतन के स्वामी कहलावै आरू
| |
− | ब्रह्म-विसनु-महेश नित करै ध्यान छै।
| |
− | जिनकर वल पर धरति ठिकलोॅ होलोॅ
| |
− | जिनकर वलें असथिर आसमान छै।
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− | भनत विजेता राजा मनु सनमुख तौने
| |
− | प्रकट भेलोॅ छै वहेॅ राम भगवान छै॥90॥
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− | नीलवर्ण कमल समान श्याम वर्ण वाला
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− | जिनका कि देखि कामदेव भी लजाय छै।
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− | सरद के चाँद जकाँ जिनकर मुख सोहै
| |
− | गला के रोॅ तीन रेखा अजब बुझाय छै।
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− | लाल रंग ओठ, मुख-नाक अति सुन्दर छै
| |
− | हँसि चाँदनी जकाँ उजास भरि जाय छै।
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− | कमल नयन, मनोहर चितवन हरि
| |
− | भगत के जौने बरवस ही लुभाय छै॥91॥
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− |
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− | टेढ़ोॅ कामदेव के धनुष जकाँ भौंह लागै
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− | दिव्य छै ललाट आरू तिलक सोहाय छै।
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− | कान में कुण्डल सिर मुकुट सोहायमान
| |
− | घुघरैलोॅ लट सहजें लटकि जाय छै।
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− | रतन जटित हार गला लटकलोॅ होलोू
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− | गरदन जेना सिंह सरिस बुझाय छै।
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− | सुन्दर जनेऊ, करधनी, तरकस वाण
| |
− | अनुपम छवि बड़ी जिया ललचाय छै॥92॥
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− | जिनकर अंश से जगत जीव उपजल
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− | जिनकर अंश से ई माया उपजल छै।
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− | ब्रह्मा-विष्णु आरो शिव छेका जिनकर अंश
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− | जिनकर शक्ति से ई जगत अचल छै।
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− | लछमी-ब्रह्माणी अेॅ शिवानी तीन महाशक्ति
| |
− | जिनकर बलें सत जग में अटल छै।
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− | भनत ‘विजेता’ तीनो लोक, तीनो काल में ई
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− | जिनकर बल से धरम निशचल छै॥93॥
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− | शोभा के समुद्र जकाँ हरि के स्वरूप मनु
| |
− | एक बेर देखलक, देखते ही रहलै।
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− | एक पल के भी लेल पलक न झपकल
| |
− | प्रेम अश्रुधारा निरझर जकाँ बहलै।
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− | आनन्द आधीन देह के सेॅ सुध बिसरल
| |
− | शरण गहल चित चेत कहाँ रहलै!
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− | सिर परसी क तब लेलन उठाय हरि
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− | इहेॅ विधि प्रभु के रोॅ प्रभुता निमहलै॥97॥
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− | दोहा -
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− | जे सुन्दर सत् काम सन, जिनका सन नै आन।
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− | सब उपमा से छै परे, करूणा पति भगवान॥15॥
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− |
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− | हरि आबी कहलन वर माँगोॅ, वर माँगोॅ
| |
− | कोनो वर मनु-सतरूप के न फुरलै।
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− | परम पुरूष के स-नैन दरसन भेल
| |
− | सकल मनोरथ तुरत आबी पुरलै।
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− | फेरो मनु महाराज मन में संकोच राखि
| |
− | एक वेर यातना के तरफ बहुरलै।
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− | नाथ हम चाहैत छी तोहरे समान पुत्र
| |
− | बस एक याचक के एतना ही जुरलै॥95॥
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− |
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− | मनु के बचन सुनि करूणा निधान हरि
| |
− | कहलन हमरा समान कहाँ आन छै।
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− | जगत के भोग तजि हमरोॅ चाहत राखै
| |
− | एन्हों प्राणी जगत में बड़ी भाग्यवान छै।
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− | नृप तारेॉ पुत्र बनी अपने आयब हम
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− | कही क बहुत खुश करूणा निधान छै।
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− | सुनि क विनित भाव कहलकि सतरूपा
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− | हमरो चाहत में त उहेॅ वरदान छै॥96॥
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− | आरो एक बात तब कहलकि सतरूपा
| |
− | अपनोॅ भगत सन नाथ नेह राखियै।
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− | वहेॅ सुख, वहेॅ, गति आरो वहेॅ भगति भी
| |
− | आरो ओनाही अपन शरण में राखियै।
| |
− | ओनाही विवेक-बुद्धि, रहन-सहन सब
| |
− | घटेॅ न ई नेह कृपा एतना टा राखियै।
| |
− | सुनते ही एवमस्तु कहलन कृपा सिन्धु
| |
− | कहलन धरम सहेजी चित राखियै॥97॥
| |
− |
| |
− | पुत्र में अगाध प्रेम माँगलन मनु जेना-
| |
− | मणि बिन फणि आरो जल बिन मीन छै।
| |
− | हमरा त दियौ नाथ एहन अगाध प्रेम
| |
− | भगत जेना कि नित भगति में लीन छै।
| |
− | जेला न चकोर कभी चाँद के विलोकि थकै
| |
− | जेना कि जीवोॅ के तन प्राण के अधीन छै।
| |
− | एन्होॅ वर माँगी मनु हरि के चरण गहै
| |
− | जेना कोनो दाता के चरण गहै दीन छै॥98॥
| |
− |
| |
− | जब तोहें होबेॅ मनु अवध नरेश आरू
| |
− | सत्रूपा अवध के रानी तब बनती।
| |
− | तब तहाँ आबी हम बनब तोहरा पूत
| |
− | जहाँ कि हमर माता सत्रूपा बनती।
| |
− | एतना कहि क हरि अंतरधियान भेल
| |
− | परब्रह्म के भी माता पलना में आनती।
| |
− | माता सत्रूपा तब वर हरखिल भेलि
| |
− | अपनोॅ उदर से नारायण के जनती॥99॥
| |
− |
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− | दोहा -
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− |
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− | मनु-सत्रूपा प्रेम बस, पैलन ई आशीश।
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− | ऐता इनका गोद में, बालक बनि जगदीश॥16॥
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− |
| |
− | कहै याज्ञवलक जी, सुनोॅ ऋषि भारद्वाज
| |
− | ई कथा कहेश पारवती के सुनैलकै।
| |
− | मनु-सतरूपा बड़ी आनन्द मगन भेल
| |
− | पूत रूपें हरि के पावै के वर पैलकै।
| |
− | हरि के कहल अनुसार मनु-सतरूपा
| |
− | दोनो जाय अमरावती में बास कैलकै।
| |
− | अवध में वहेॅ दशरथ अेॅ कौशल्या भेल
| |
− | बाल लीला देखि दोनों जनम जुरैलकै॥100॥
| |
− |
| |
− | सुनोॅ भारद्वाज एक आरो अवतार कथा
| |
− | पारबती के जे महादेव जी सुनैलकै।
| |
− | कैकय देशोॅ में एक राजा सत्यकेतु रहै
| |
− | धरम के बलें राज आपन चलैलकै।
| |
− | बड़ी नीतिवान, तेजवंत अेॅ प्रतापी रहै।
| |
− | विश्व के नरेश जिनकर, यश गैलकै।
| |
− | पुत्र ने प्रतापभानु, आरो अरिमरदन
| |
− | दू टा वलशाली गुणवंत पुत्र पैलके॥101॥
| |
− |
| |
− | बड़का पूतोॅ के सब राज-पाट सौपी राजा
| |
− | तप हेतु जंगल के राह धरि लेलकै।
| |
− | राज-काज पावी तब प्रतापी प्रतापभानु
| |
− | धरम के धारी राज आपन चलैलकै।
| |
− | सगरो दुहाई परै, धन्य हो प्रताप भानु
| |
− | राज-काज हेतु वेद विधि अपनैलकै।
| |
− | राज में न पाप कहीं, कोनो भी संताप नाही
| |
− | चारो दिश धरम के अलख जगैलकै॥102॥
| |
− |
| |
− | राजा के रोॅ मंत्री छेलै बुद्धिमान धर्मरूची’
| |
− | भाई छेलै बलवान, सेना चतुरंगिनी।
| |
− | जेकरा कि बलें राजा जगत विजेता भेल
| |
− | जिनकर सेना कई-एक अक्-छोहिनी।
| |
− | निज सैन्य-वलेॅ बेलें सातो द्वीप जीत ऐला
| |
− | राजा चक्रवर्ती भेला जीत पूरे धरनी।
| |
− | राज के रोॅ जीती सब राजा के अभय करि
| |
− | शान्ति बिसतारै सब सेना शस्त्र वाहिनी॥103॥
| |
− |
| |
− | धरम-अरथ-काम, सब सुख भोगै राजा
| |
− | सब नार-नारी सुचत्रि-सुविचार के।
| |
− | बिन भेद-भाव कैने सम रूप न्याय मिलै
| |
− | पूजै सब कानुन, न्यायिक व्यवहार के।
| |
− | राजा-गुरू-वैद-संत-देव आरू ब्राह्मण के
| |
− | सब दै सम्मान, सेवै बिरिध लाचार के।
| |
− | वेद में जे राजा के रोॅ धरम बतैलोॅ गेलै
| |
− | राजा राखलक सब नीति में उतारि केॅ॥104॥
| |
− |
| |
− | दोहा -
| |
− |
| |
− | शासन भानु प्रताप के, लगै राम के राज।
| |
− | सुन्दर-सुखद समाज छै, न्यायोचित हर काज॥17॥
| |
− |
| |
− | मन-कर्म-वाणी वासुदेव के चरण सौपी
| |
− | सगरो पसारै यश ज्ञान-विगियान के।
| |
− | भाँति-भाँति दान अेॅ मंदिर निरमान करै
| |
− | नित ही वखान करै कथा अेॅ पुरान के।
| |
− | नगर में कुआँ अेॅ तलाव खुदबाबै आरू
| |
− | सागर कहावै नृप भगती के ज्ञान के।
| |
− | एक-एक यज्ञ के कई हजार वार करै
| |
− | सब गुण-गान करै नित भगवान के॥105॥
| |
− |
| |
− | जब कि प्रतापभानु घोड़ा पे सवार भेल
| |
− | करै लेॅ शिकार गेल विघिन पहाड़ पे।
| |
− | नजर पे परि गेल सुअर विशाल एक
| |
− | करने पिछेड़ गेल ओकरे फिरार में।
| |
− | घोड़ा के आहट पर सुअर चौकन्न भेल
| |
− | नजर परल तब ओकरोॅ सवार पे।
| |
− | भागल सुअर तब पवन के वेग गहि
| |
− | धरती-दुबकि रहै वाण के रोॅ वार पे॥106॥
| |
− |
| |
− | रात अँधियारोॅ जानि बोलल कपट मुनि
| |
− | रात भर रूकि जा सबेरे तों निकलिहोॅ।
| |
− | घनघोर जंगल के रसता अबूझ बड़ी
| |
− | यहाँ रूकि अपनोॅ थकान नाश करिहोॅ।
| |
− | बगल के वृक्ष में ही बाँधि द अपन घोड़ा
| |
− | दोनों मिली रात भर हरि के सुमरिहोॅ।
| |
− | करै लेॅ चाहै छी हम तोॅरोॅ उपकार अब
| |
− | अपनोॅ मानोॅ में कोनो कामना के धहिहोॅ॥113॥
| |
− |
| |
− | जेना कि बहेलिया के बाँसुरी के तान सुनी
| |
− | मोहक हिरण आबी खुद बंधी जाय छै।
| |
− | जेना कि कमल के रोॅ कोमल फाँसो के बीच
| |
− | आबी केॅ भँवर अपने ही फँसी जाय छै।
| |
− | जेना कि चकोर आग चाँद के प्रसाद बूझी
| |
− | चाँद के रोॅ चाहत में लपकी केॅ खाय छै।
| |
− | वैसी ना बाहर के आडम्बर के सच मानी
| |
− | संत के कपट में सुजन फँसी जाय छै॥114॥
| |
− |
| |
− | दोहा -
| |
− |
| |
− | मीड़ बोल सुनि केॅ फँसल, राजा भानुप्रताप।
| |
− | फँसि कपटी के पेंच में, आप रहल नै आप॥19॥
| |
− |
| |
− | बड़ी मीठ-मीठ बालै छेलै ऊ कपटि मुनि
| |
− | मन में ऊ कपटी-कुचाल-छल भरने।
| |
− | एक तेॅ ऊ बेरी छेलै, दोसर स्वजाति छलै
| |
− | राजा छिनै के छलै गलानी चित धरने।
| |
− | मुनि के प्रतापभानु सिद्ध संत बूझि गेल
| |
− | रहल स्वप्रेम बस चरण पकड़ने।
| |
− | कहलक मुनि सब गरिबोॅ के एक नाम
| |
− | विधि ही छै हमरोॅ भिखरी नाम धरने॥115॥
| |
− |
| |
− | ‘एकतनु’ जानि क न करोॅ अचरज तोहें
| |
− | तप वलें दुनियाँ में कुछ भी आसान छै।
| |
− | तप वल से ही हरि जग के पालन करै
| |
− | तप वल से विधाता करै निरमान छै।
| |
− | तप वल से ही शंभु सृष्टि के संघार करै
| |
− | सूरज के तप फल नबका विहान छेॅ।
| |
− | तप के प्रभाव सब जानै सिद्ध संत जन
| |
− | तप के ही बस में सदैव भगवान छै॥116॥
| |
− |
| |
− | दोहा -
| |
− |
| |
− | ‘काग भुसुण्डी तप वलेॅ तजै न अपनोॅ देह।
| |
− | मुनि बोलल-राजा सुनोॅ, करोॅ न तों संदेह॥20॥
| |
− |
| |
− | फेरू ‘एकतनु’ कहेॅ लागल पुरान कथा
| |
− | करम-धरम-इतिहास के बतैलकै।
| |
− | ज्ञान अेॅ विज्ञान कथा, जग उतपत्ति कथा
| |
− | पालन-संघार-बिस्तार से बतैलकै।
| |
− | सुनि तपसी के बस भेॅ गेला प्रतापभानु
| |
− | तब ऊ अपन नाम सच बतलैलकै।
| |
− | ‘गोपनीयता हरेक देश के धरम छिक’
| |
− | ”झूठ राजनीति के शृंगार“ बतलैलके॥117॥
| |
− |
| |
− | तों छिकेॅ प्रतापभानु, तोरोॅ पिता ‘सत्यकेतु’
| |
− | गुरू के कृपा से हम सब बात जानै छी।
| |
− | हमरा से छिपल न जगत के कोनो बात
| |
− | हम त पवन के भी रूख पहचानै छी।
| |
− | अपनोॅ हानी बिचारी सच न कहै छी कहीं
| |
− | जब कि जगत के मरम सब जानै छी।
| |
− | तोहरोॅ स्वभाव देखि ममता उमरि गेल
| |
− | अब होत तोर हित सच हम जानै छी॥118॥
| |
− |
| |
− | बहुत प्रसन्न भेलौं तोहरा ऊपर, हम
| |
− | मागि ल तों कोनो वर, जौने मन भाय छै!
| |
− | तप वलें दुरलभ सुलभ बनै छै राजा
| |
− | माँगि ल तों जौने सुख तोहरा लुभाय छै।
| |
− | माँगलक राजा मिरतु-दुख रहित तन
| |
− | जगत के सब सुख जाहि में समाय छै।
| |
− | माँगलक बिरिध अबस्था रहित तन
| |
− | जेकरा से भौतिक समस्त सुख पाय छै॥119॥
| |
− |
| |
− | माँगलक राजा सौ कलप अकंटक राज
| |
− | कोनो न हरावें मारेॅ हमरा समर में।
| |
− | हमरोॅ प्रताप अब सुर लोक तक जानेॅ
| |
− | हमरोॅ किरती गुजेॅ सब घर-घर में।
| |
− | कहलन तपसी एहनका होतोॅ परन्तु
| |
− | एक-टा बाधा छोॅ बड़ोॅ तप के डगरे में।
| |
− | सब होतोॅ बस एक ब्राह्मण के छोड़ी राजा
| |
− | ब्राह्मण के तप गुँजै त्रिभुवन भर में॥120॥
| |
− |
| |
− | जगत में सब से कठीन तप ब्राह्मण के
| |
− | ब्राह्मण जो रीझै तीनो लोक बस होय छै।
| |
− | जेकरा ऊपर एक ब्राह्मण सहाय रहेॅ
| |
− | तेकरोॅ विनाश तीनो काल में न होय छै।
| |
− | ब्राह्मण के जानोॅ देवता के प्रतिनिधि छिक
| |
− | धरम के जौने कि काँवर नाकी ढोय छै।
| |
− | तोरोॅ न विनाश होथौं ब्राह्मण के शाप बिना
| |
− | ब्राह्मण कुपित फुसो बात पर होय छै॥121॥
| |
− |
| |
− | दोहा -
| |
− |
| |
− | बाभन देव समान छै, जानै जगत प्रताप।
| |
− | विप्र चरित कपटी भखै, श्रोता भानुप्रताप॥21॥
| |
− |
| |
− | जुगती करी क तोहें ब्राह्मण के बस करोॅ
| |
− | तीनो काल में न तोरोॅ नाश हुए पारथौं।
| |
− | हमरोॅ मिलन के प्रसंग के बिसारी राखोॅ
| |
− | ब्राह्मण के छोड़ी कोनो वाल न बिगारथौं।
| |
− | ई प्रसंग कभी-कही-कोनो ठाम बाची देबेॅ
| |
− | एक भूल जिन्दगी के सब सुख जारथौं।
| |
− | ब्राह्मण अेॅ गुरू जेकरोॅ छै उबारनिहार
| |
− | सनमुख ओकरा महान-वलि हारथौं॥122॥
| |
− |
| |
− | कोन विधि होत नाथ ब्राह्मण हमर बस
| |
− | बोलल प्रतापभानु हमरा बताय देॅ।
| |
− | तोरोॅ सन दुनियाँ में मोर उपकारी कहाँ
| |
− | ब्राह्मण रिझावै के जुगति समझाय देॅ।
| |
− | तपसी कहलकै कि सुनि लेॅ प्रतापभानु
| |
− | हमरा तों एक उलझन से बचाय देॅ।
| |
− | प्रण अेॅ परोपकार दोनों में सवल कौन?
| |
− | मन के रोॅ द्वन्द छिक, बात फरियाय देॅ॥123॥
| |
− |
| |
− | जब से जनम भेल, तहिया से अब तक
| |
− | गाँव अेॅ नगर के त मुँह न देखलियै।
| |
− | बर-बर सब आबी क मनाबी गेल
| |
− | किनको न, अब तक, घर पर, गेलिए।
| |
− | लेकिन ई काज बिना गेने त दुसह लागै
| |
− | द्वन्द बीच हम त उलंग फँसि गेलियै।
| |
− | बिन गेने तोर काज अब बिगरत जनु
| |
− | सोची रहलो छी केना रसता निकालियै!॥124॥
| |
− |
| |
− | बोलल प्रतापभानु एक बात सुनोॅ नाथ
| |
− | संत के स्वभाव उपकार रत होय छै।
| |
− | बड़ा आदमी जेना कि छोट पे सनेह राखै
| |
− | जेना परवत सिर बिरिछ धरय छै।
| |
− | जेना कि अगाध सिन्धु सिर पर झाग धरै
| |
− | वसुन्धरा धल निज, सिर पे धरय छै।
| |
− | वैसी-ना हे नाथ उपकार हमरा पे करोॅ
| |
− | गुरू-पिता-माता जे बालक पे करय छै॥125॥
| |
− |
| |
− | बोलल कपटि मुनि मंत्र के प्रभाव जानोॅ
| |
− | जेतने गुपुत राखोॅ तेतने फलय छै।
| |
− | मंतर के धार तलवार से भी तेज जानोॅ
| |
− | पवन के वेग जकाँ मंतर चलय छै।
| |
− | मंत्र के प्रभाव बाँधि करब तोहर काज
| |
− | जे न कोनो करि सकै मंत्रर करय छै।
| |
− | वैसी ना तोहर हित करब प्रतापभानु
| |
− | जेना उपकार गुरू शिष्य के करय छै॥126॥
| |
− |
| |
− | कुण्डलिया -
| |
− |
| |
− | शब्द शक्ति के जानि लेॅ, जैसें गाली एक
| |
− | चाप बढ़ावै रक्त के, नाशै तुरत विवेक।
| |
− | नाशै तुरत विवेक नशा के जकतें बौरै,
| |
− | तखनी गाली महज शब्द नस-नस में दौड़ै।
| |
− | नै तनियों-सा बोध रहै छै ज्ञान भक्ति के
| |
− | ऐसन छै परभाव अजूबा शब्द शक्ति के॥1॥
| |
− |
| |
− | हम छिकौ राजा पाक शास्त्र में प्रवीण सुनोॅ
| |
− | हमरोॅ बनैलोॅ होलोॅ जौने कोनो खाय छै!
| |
− | जब हम पकवै छी पाक बसीकरण त
| |
− | परम विरोधी आबी दस बनी जाय छै।
| |
− | हमरोॅ मानोॅ त तोहें ब्राह्मण ज्योनार करोॅ
| |
− | हमरा बुझावै एक सहज उपाय छै।
| |
− | अपने रिन्हब हम, तोहें परसनिहार
| |
− | देखिहो ब्राह्मण केना असतुति गाय छै॥127॥
| |
− |
| |
− | ब्राह्मण उदर में तों अन्न के हवन करोॅ
| |
− | एकरोॅ बहुत ही मधुर फल मिलतोॅ।
| |
− | तोहें एक बरस के एहनोॅ संकल्प करोॅ
| |
− | तोहरोॅ विजय ध्वज धुरि से न हिलतोॅ।
| |
− | ब्राह्मण जों खुश, उनकर परिजन खुश
| |
− | ब्राह्मण जों खुश सब देव खुश मिलतोॅ।
| |
− | ब्राह्मण के पूजन-हवन जप-तप के रोॅ
| |
− | तोरोॅ अन्न खैनें सब फल तोरे मिलतोॅ॥128॥
| |
− |
| |
− | तोहरोॅ पुरोहित के हरि क अनाब हम
| |
− | अपने पुराहित के रूप हम धरबोॅ।
| |
− | साल भर रहब तोहर भनसिया बनि
| |
− | ब्राह्मण ज्योनार के परण पूरा करबो।
| |
− | हम भनसिया आरो तोहें परसनिहार
| |
− | ऊपर से मंतर बसीकरण भरबोॅ।
| |
− | जगत विजेता तोहें बनवेॅ प्रतापभानु
| |
− | तोरा लेली तप के आहुत हम करबोॅ॥129॥
| |
− |
| |
− | बात गेल पुरन त ‘रात बड़ी चढ़ी गेल
| |
− | तपसी कहलकै, आराम तोहें करि लेॅ।
| |
− | सुतले में तोरा हम घर पहुँचाबी देबोॅ
| |
− | तप के प्रभाव के अपन चित धरि लेॅ।
| |
− | सब विधि करब तोहर हित सुनोॅ राजा
| |
− | आतमा में अटल विश्वास तोहें भरि लेॅ।
| |
− | तोरा से मिलब हम आबी क तेसर दिन
| |
− | ई रहस्य के तोहें रहस्य जकाँ धारि लेॅ॥130॥
| |
− |
| |
− | कालकेतु कपढ़ी मुनि के रोॅ परम मित्र
| |
− | सूअर बनी केॅ जे राजा के भटकैलकै।
| |
− | राजा सुतलै तेॅ कालकेतु निशिचर ऐलै
| |
− | आबी केॅ अपन मित्र धरम निभैलकै।
| |
− | कपटी मुनी के संग निशिचर कालकेतु
| |
− | छल परपंच रचि योजना बनैलकै।
| |
− | दोनो के रहै प्रतापभानु से पुरूब वैर
| |
− | बदला सधावै के जुगत दोनो कैलकै॥131॥
| |
− |
| |
− | सोरठा -
| |
− |
| |
− | कलप तरू विश्वास, कपट अमरवेली लता।
| |
− | घुन-षड-दुरगुण पास, भीतर से दुर्बल करै॥6॥
| |
− |
| |
− | कालकेतु निशिचर छल में प्रवीण छलै
| |
− | छल-वल से जे देवतो के भरमैलकै।
| |
− | एक सौ पुत्तर छेलै आरो सात भाय छेलै
| |
− | धरती पे जौने उतपात बड़ी कैलकै।
| |
− | सब के समर में पछारी क प्रतापभानु
| |
− | राज-पाट ओकरोॅ अपन बस कैलकै।
| |
− | जान लेॅ केॅ भागी गेल असगर कालकेतु
| |
− | लुकि-छिपि जंगल में दिवस बितैलकै॥132॥
| |
− |
| |
− | तपसी अेॅ कालकेतु दोनो ही नरेश छल
| |
− | दोनो के बसल छल राज मोह मन में।
| |
− | दोनो राजा ही भानुप्रताप के मारल छेलै
| |
− | डर से छिपल छलै आवी दोनो वन में।
| |
− | दोनो के रोॅ शत्रु एक ही प्रतापभानु छेलै
| |
− | जेकरा कारण दुख भरल जीवन में।
| |
− | आजु आबी छल में फँसल छै प्रतापभानु
| |
− | दोनो भिरलोॅ छै वहै जुगती जतन में॥133॥
| |
− |
| |
− | शत्रु आरो रोग के तों छोट बुझि क न टारोॅ
| |
− | दोनो के तों जानि लेॅ घातक परिणाम छै।
| |
− | कहलक कालकेतु आब तों निचिंत रहोॅ
| |
− | आब त बहुत ही आसान भेलोॅ काम छै।
| |
− | छन में ही मायावी के माया बिसतार भेल
| |
− | जे माया के लेली निश्चिर बदनाम छै।
| |
− | सुतलें नरेश राजभवन पहुँची गेल
| |
− | निशाचरी माया के अजब सब काम छै॥134॥
| |
− |
| |
− | राजा के पुरोहित के भेल अपहरण अेॅ
| |
− | कालकेतु आबी पुरोहित रूप धैलकै।
| |
− | राजा जब उठल त उठतें चकित भेल
| |
− | अपना के जब राजभवन में पैलकै।
| |
− | कहीं ई रहस्य जग विदित न हुए पारेॅ
| |
− | राजा अब चुपके जंगल रूख कैलकै।
| |
− | दुपहर चढ़ल त राजा घुरि घर ऐला
| |
− | ई रहस्य राजा केकरो भी न बतैलकै॥135॥
| |
− |
| |
− | राजा के रोॅ मन बुद्धि कपटी मुनि में बसै
| |
− | सुध-बुध तजि कपटी मुनि में रमलै।
| |
− | पुरोहित रूप धरि आवी गेल कालकेतु
| |
− | बेसुध बनल राजा छल के न गमलै।
| |
− | तुरत नौतल गेल एक लाख ब्राह्मण के
| |
− | आवी गेल सब बिप्र एक टा न कमलै।
| |
− | छह रस आरो चार तरह पकल पाक
| |
− | एक लाख ब्राह्मण ज्योनार हेतु जमलै॥136॥
| |
− |
| |
− | दोहा -
| |
− |
| |
− | साकाहारी जीव जब, करै मांश आहार।
| |
− | बदलै मांशाहारि सन, सब ओकरोॅ व्यवहार॥22॥
| |
− |
| |
− | भाँति-भाँति व्यंजन में मांश के प्रयोग भेल
| |
− | ई रहस्य त भानुप्रताप भी न जानलै।
| |
− | उहो में कि भोजन में मानव के मांश होत
| |
− | ई त कोनो अनुमान में न अनुमानलै।
| |
− | परम विश्वास राखि कपटी मुनि में राजा
| |
− | एकरे में तब ऊ अपन हित जानलै।
| |
− | परसै के बेर बात अपने प्रकट भेल
| |
− | तब राजा माथ पर हाथ धरि कानलै॥137॥
| |
− |
| |
− | ब्राह्मण बैठल जब भोजन पंगत पर
| |
− | भोजन परसतें आकाशवाणी भेॅ गेलै।
| |
− | जेनाही उठल रहै हाथ में पहिल कौर
| |
− | आकाशवाणी ने सब के सचेत केॅ गेलै।
| |
− | ब्राह्मण भोजन तजोॅ, आपन धरम राखोॅ
| |
− | भोजन में नर-मांश के प्रयोग भेॅ गेलै।
| |
− | सुनतें आकाशवाणी ब्राह्मण क्रोधित भेल
| |
− | सब एक स्वर में राजा के शाप देॅ गेलै॥138॥
| |
− |
| |
− | ब्राह्मण बोली उठल, हे अधरमी नरेश
| |
− | तोहरोॅ विनाश होतोॅ अधरम काज से।
| |
− | कुल परिवार के समेत निशिचर होवेॅ
| |
− | धरम खलित होतोॅ अब तोरोॅ राज से।
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− | हमरोॅ धरम के त राम जी राखनिहार
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− | तोहर व्यतित होतें राज-पाट नाश होतोॅ
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− | एक दिन दूर होवेॅ नृप के समाज से॥139॥
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− |
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− | एक बेर फेर भेल वैसी ना आकाशवाणी
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− | कि राजा प्रतापभानु के न कोनो दोष छै।
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− | एक कपटी के रोॅ फेरा में छै परल राजा
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− | भेल अनपेक्षित मर्दो में मदहोश छै।
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− | सुनते आकाशवाणी ब्राह्मण चकित भेल
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− | आरो भानुप्रतापोॅ के उड़ी गेलोॅ होश छै।
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− | राजा गेल वहाँ जहाँ भोजन बनैत रहै
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− | देखलक ठीके बहाँ आदमी के गोस छै॥140॥
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− |
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− | कहीं भी न भनसिया ब्राह्मण से भेंट भेल
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− | धरती पे राजा निमझानं भेॅ केॅ गिरलै।
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− | सच-सच बात राजा सब के रोॅ कहीं गेल
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− | सुनते ही तब सब के रोॅ सिर फिरलै।
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− | निकलल शाप कोनो जतन न फिरेॅ पारै।
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− | शाप से प्रतापभानु चारो दिश घिरलै।
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− | सुनि क खबर ई दुखित भेल पुरवासी
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− | लागल सुरूज खनि धरती पे गिरलै॥141॥
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− |
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− | दोहे -
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− |
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− | मुद्गल कभी न भेल छै, छल के भल परिणाम।
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− | जों कपटी कुछ नै करेॅ, तै पर भी वदनाम॥23॥
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− |
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− | कपट और कुछ लै छिकै, छिकै हनित विश्वास।
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− | दोहन करि विश्वास के, कपटी पुरवै आस॥24॥
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− |
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− | जब कालकेतु गेल तपसी मुनि के पास
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− | राजा के शापित वाली कथा ऊ सुनैलकै।
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− | दोनों मिली बैठी क प्रपंच बिसतारलक
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− | हारल नरेश सिनी सब के जुटैलकै।
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− | भानु छे ढलान पर, आब ऊ प्रताप कहाँ?
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− | शाप वाली बात बिसतारी क बतैलकै।
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− | हारलोॅ राजा में फेरू भरी क आतम-बल
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− | कालकेतु योजना सभे के समझैलकै॥142॥
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− |
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− | योजना समझि सब हारलोॅ नरेश सिनी
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− | डंका पीटी सगरो नगर घेरी लेलकै।
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− | भाँति-भाँति युद्ध भेल, ठाम-ठाम युद्ध भेल
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− | लड़ी-भिड़ी उनका तबाह करी देलकै;
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− | कुल परिवार सब युद्ध में लड़ी मरल
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− | राज-पाट, धन-कोश, सब हरि लेलकै।
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− | लड़ी क मरल युद्ध बीच में प्रतापभानु
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− | समर में पीठ राजा आपनोॅ न देलकै॥143॥
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− |
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− | कहै याज्ञवलक जी, सुनोॅ ऋषि भरद्वाज
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− | जिनका से विधना वेरूख बनी जाय छै।
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− | उनकरा स्वजन भी शत्रु समान दिखै
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− | ठाम-ठाम तिनका भी उनका डेराय छै।
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− | हीत-मित-परिजन सब लागै यम सन
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− | रसरी भी साँप जकाँ, उनका बुझाय छै।
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− | अपनोॅ भी घर तब जेल के समान लागै
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− | अपनोॅ ही देश परदेश बनी जाय छै॥144॥
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− |
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− | सुनोॅ ऋषि दोसर जनम में प्रतापभानु
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− | सब परिजन निशिचर तन पैलकै।
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− | दस सिर वाला आरू बीस भूज धारी वीर
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− | रावण प्रतापी अतुलित वल पैलकै।
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− | राजा के रोॅ अनुज रहै रेॅ अरिमरदन
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− | अगला जनम कुंभकरण कहैलकै।
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− | राजा के रोॅ मंतरी जे रहै रेॅ धरम रूची
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− | धरम में रूची विभीषण नाम पैलकै॥145॥
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− |
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− | राजा के रोॅ पूत, परिजन अेॅ सेवक सिनी
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− | सब आवी संगे निशिचर योनी पैलकै।
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− | बड़ी वलशाली आरू बहुत मायावी सब
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− | तीनों लोक में ई उतपात बड़ी कैलकै।
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− | दुरजन-कुटिल-कठोर-अविवेकी सिनी
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− | हिंसक-दुराचारी-अधरम मचैलकै।
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− | सुर-नर-नाग-यक्ष-किन्नर-गंधर्व आदि
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− | एक-एक करी केॅ ऊ सब के सतैलकै॥146॥
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− |
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− | कुण्डलिया -
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− |
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− | रावण में गुण बाप के, मिलल वेद के ज्ञान।
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− | माता के गुण आसुरी, तिनकर हय संतान॥
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− | तिनकर हय संतान, असुर दशकंधर प्रतापी।
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− | महिमा बड़ी महान, लोक मंे दश दिश व्यापी॥
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− | जिनकर भ्राता कुम्भकरण अरू भक्त विभीषण।
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− | बैठल तप पर जाय भाय के साथें रावण॥2॥
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− |
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− | रावण जनम भेल प्रतापी पुलस्य कुल
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− | उनके से चारो वेद के रोॅ ज्ञान पैलकै।
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− | पिता से मिलल रहै संस्कार तप के रोॅ
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− | तीनो भाय बैठी के कठोर तप कैलकै।
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− | तीनो के तपस्या देखी ब्रह्मा जी प्रसनन भेला
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− | आरो ब्रह्मदेव से ऊ वरदान पैलकै।
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− | दुनियाँ में कोनो शक्ति हमरा न मारी सकेॅ
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− | बस नर-वानर दू जात के दुरैलकै॥147॥
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− |
| |
− | हमहुँ रहौ रेॅ उमा ब्रह्मा के ही संग-संग
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− | रावण के हम दोनों मिली वर देलियै।
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− | तब कुंभकरण के पास हम दोनों गेलौं
| |
− | आरू भयंकर रूप देखी क सोचलियै।
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− | एकरोॅ आहार से जगत के उजार होत
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− | तब हम दोनों सरसती सुमिरलियै।
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− | उनकर प्रेरणा से माँगलक निन्द्रासन
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− | इन्द्रासन माँगेॅ चाहै निन्द्रासन देलियै॥148॥
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− |
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− | विभीषण माँगलक निस्काम भगती अेॅ
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− | हरि के चरण के रोॅ भगती ऊ पैलकै।
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− | तिनकर व्याह भेल सरमा सुन्दरी संग
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− | वज्रज्वाला के कुंभकरण अपनैलकै।
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− | रावण के व्याह भेल मंदोदरी संग-संग
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− | दानवेन्द्र से जे उपहार में ऊ पैलकै।
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− | सागर के मद्ध में सुहावनोॅ लंका नगर
| |
− | नगर दशानन के बहुत लुभैलकै॥149॥
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− |
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− | माता केकसी के संग रावण विचार करै
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− | भाँति-भाँति के अनेक योजना बनैलकै।
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− | लंका निशिचर कुल के रोॅ धरोहर छिक
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− | रावण के तब माता केकसी पढ़लकै।
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− | कोन विधि लंका पर भोर अधिपत्य होत
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− | विधिवत रावण ई योजना बनैलकै।
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− | रावण देखलकै कुवेर के विमान जब
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− | तखने विमान पुस्पक ऊ टिकैलकै॥150॥
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− |
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− | लंका के बसैनें रहै हेती-परहेती दैत्य
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− | देवासुर युद्ध में पाताल सब भागलै।
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− | लंका के मनोरम परम सुनसान देखि
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− | यक्षपति वहाँ पे कुवेर रहेॅ लागलै।
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− | बाहुबली रावण कुवेर के रोॅ यश सुनि
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− | लंका हरपै के उतजोग करेॅ लागलै।
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− | दशानन रावण के योजना सफल भेल
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− | आक्रमण करते ही यक्ष सिनी भागलै॥15॥
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− |
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− | दोहा -
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− |
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− | दुनियाँ पर भारी परल लंका के रोॅ नाम।
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− | उदित अरूण जकतें करै, सब टा देशप्रणाम॥25॥
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− |
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− | जब भेल रावण के राजधानी लंकापुरी
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− | सब राजा पर धौंस अपनोॅ जमैलकै।
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− | आरो तीनो लोक में मचल हरकंप तब
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− | धनपति से ऊ पुस्पक छिनी लैलकै।
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− | दुनियाँ के बाहुबल अपनोॅ दिखावै लेली
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− | कैलाश पर्वत छन में उठावी लेलकै।
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− | निन्द से जगल जब कभी कुंभकरण तेॅ
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− | दशो दिश में ऊ हरकंप करी देलकै॥152॥
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− |
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− | सेना-सुख-संपत-प्रताप-बल-बुद्धि-यश
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− | दिन दूना लोभ रात चारगुणा बढ़लै।
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− | मेघनाद सन वलशाली पुत्र जब भेल
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− | वल के रोॅ मद तब माथ पर चढ़लै।
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− | दुरमुख-धूमकेतु-अकम्पन-अतिकाय
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− | एकरा निहारी वल आर वेसी बढ़लै।
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− | कुल परिवार सब देखि क अपार वल
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− | सब के विचार अनाचार दिश बढलै॥153॥
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− |
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− | वल के बिलोकी तब रावण कहलकै कि
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− | जगत में महाबली निशिचर जाति छै।
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− | निशचर के रोॅ सब काज में खलल डालै
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− | देवता समाज सब बड़ उतपाती छै।
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− | मानव के यज्ञ के रोॅ आश पे पलनिहार
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− | विसनु भी असुर समाज लेली घाती छै।
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− | जखनी दहारै कभी मेघ जकाँ मेघनाद
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− | इरसा से जरी उठै इन्द्र के रोॅ छाती छै॥154॥
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− |
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− | देवता के वल छिन एक ही विधि से होत
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− | जब कि न यज्ञ भाग देवता के मिलतै।
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− | यज्ञ भाग बिन सब देव दुरवल होत
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− | निशिचर जाति में सहजें आवी मिलतै।
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− | सब निशचर जाति यज्ञ के विरोधी बनोॅ
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− | यज्ञ के मिंघारोॅ जहाँ कहीं यज्ञ मिलतै।
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− | हम छी रावण हम जगत विजेता छिकौं
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− | हमरा आदेश बिना पात भी न हिलतै॥155॥
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− | लेॅ केॅ चन्द्रहास आरू मेघनाद साथ लेॅ केॅ
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− | रावण चलल तीनो लोक के हरावै लेॅ।
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− | जोने जोग-जप करै, जहाँ कोनो तप करै
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− | चलल निशाचर ऊ सब के डरावै लेॅ।
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− | कुवेर-वरूण-वायु-चन्द्रमा-अनल-यम
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− | यलल रावण दास सब क बनावै लेॅ।
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− | देवता-मनुष्य-सिद्ध-किन्नर-गंधर्व-नाग
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− | पकड़ि-पकड़ि अरदास करवावै लेॅ॥156॥
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− | देव-यक्ष-मनुष्य-गंधर्व आरू नागकन्याँ
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− | जबरन व्याही क रावण घर लैलकै।
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− | सब राजा के रोॅ शिरोमणी भेल दशानन
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− | भुजवल के प्रताप सब के देखैलकै।
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− | सब निशिचर भेल वेद के विरूद्ध अब
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− | खोजि-खोजि सब यज्ञ-थल के मिटैलकै।
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− | सब में निशाचर के गुण विद्यमान भेल
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− | धरती बेचारी लोर आपनोॅ बहैलकै॥157॥
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− | सोरठा -
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− | त्रसित भेल सब संत, बेचारी धरती बनल।
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− | रावण के रोॅ अंत, होतै ऐता राम जब॥7॥
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