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अंगिका रामायण / पाँचवा सर्ग / भाग 1 / विजेता मुद्‍गलपुरी

शान्त हो आकाश, अंतरिक्ष शान्त-शान्त रहेॅ
शान्त धरती हो, जल के रोॅ धार शान्त हो।
शान्त रहेॅ औषध, वनस्पति शान्त रहेॅ
त्रिदेव समेत सब देवगण शान्त हो।
शान्त रहेॅ शान्ति खुद, सब प्राणी शान्त रहेॅ
गगन के सौर परिवार सब शान्त हो।
शान्ति उदघोष हो, समस्त विश्व शान्त रहेॅ
मानव के मन चित्त शान्त-शान्त-शान्त हो॥1॥

गगन के शान्त राखेॅ देवता वरूण देव
सूर्य देव शान्त राखेॅ सौर परिवार को
अंतरिक्ष इद्र-रूद्र-गरूड़-वायु-पर्जन्य
सब मिली शान्त राखेॅ जल के रोॅ धार के।
औषध के शान्त राखेॅ अश्विनी कुमार दोनों
वनस्पति शान्त राखेॅ विष्णु ई संसार के।
पृथवी के शान्त राखेॅ अग्नि-सोम-सप्तसिन्धु
सरस्वती मन-चित्त-उठैत विचार के॥2॥

आतमा के शान्त राखेॅ सदैव सुरूज देव
चन्द्रमा जे मन के रोॅ शीतल बनाय छै।
काम के रोॅ शान्त राखेॅ कामदाहा महादेव
भगवती बल-बेग संयत बनाय छै।
वाणी के रोॅ शानत राखै भगवती सरस्वती
संयत राखि क धार ज्ञान के बहाय छै।
सब देव मिली जब नवोग्रह शान्त राखेॅ
तब जिन्दगी ही महातीर्थ बनी जाय छै॥3॥

परम सुन्दर, शान्त अवध नगर जहाँ
पुत्र यज्ञ हेतु यज्ञ शाला वनवैलोॅ गेल।
यज्ञ में पधारै वाला अतिथि सिनि के लेली
भाँति-भाँति सुन्दर प्रबन्ध सब कैलोॅ गेल।
नगरवासी के अन-धन-दान देलोॅ गेल
ऊँच-नीच सब के रोॅ कामना पुरैलोॅ गेल।
यज्ञ में यथोचित सम्मान लेली नगर के
चारो वर्ण के प्रधान सादर बोलैलोॅ गेल॥4॥

देश-देश के राजा के देलोॅ गेल निमंत्रण
सब के सादर सत्कार से बोलैलोॅ गेल।
मिथिला से सिरध्वज जनक बोलैलोॅ गेला
आरो काशीराज के सम्मान से बोलैलोॅ गेल।
कैकय नरेश राजसिंह महाराज ऐला
अंग के नरेश रोमपाद के बोलैलोॅ गेल।
कौशल नरेश भानुमान मंत्री संग ऐला
मगर नरेश प्रपतिज्ञ के बोलैलोॅ गेल॥5॥

दोहा -

आगत से स्वागत करेॅ, उमरल सकल समाज।
उचरल सकल जुबान से, जय दशरथ महराज॥1॥

सिन्धु पंचनद अेॅ सौराष्ट्र के नरेश ऐला
सब के ही सादर सुआसन बिठौलोॅ गेल।
पूरब-दक्षिण के रोॅ सब-टा नरेश ऐला
भाँति-भाँति रतन सनेश, संग लैलोॅ गेल।
यज्ञ के रोॅ सब टा तैयारी भी पूरब भेल
सब-टा जरूरी चीज मंडप में थैलोॅ गेल।
शुभ दिन-नक्षत्र-मुहुरत विचारी तब
शृंगी अेॅ वशिष्ट के मंडप में बोलैलोॅ गेल॥6॥

राजा दशरथ तीनों रानी के समेत तब
यज्ञ के संकल्प ऋषि शुंगी जी से पैलका।
आवाहन पर देवता के आगमन भेल
सब देवगण के सुआसन बिठैलका।
सब देव ऐलॉे रहे यज्ञ के निमत्त किन्तु
ब्रह्मदेव रावण के जिकिर चलैलका।
केना तीनों लोक के रोॅ प्राणी नाक-दम भेल
जगत में केकरा न रावण सतैलका॥7॥

सब वर्तमान राजनीति पे विचार करै
केना क रावण वल आपनोॅ बढ़ैलकै।
केना तीनोॅ लोक पर बड़ परभावी भेल
केना शिव जी के माथ काटि क चढ़ैलकै।
केना सातो द्वीप के हरपि क समृद्ध भेल
किनकर कन्याँ केना घर से उठैलकै।
कोन देवता के डाली राखलक बंदीगृह
कोन देवता के धरि चाकरी करैलकै॥8॥

सूरज भी जहाँ नित ताप न दिखावेॅ पारै
पवन आदेश अनुसार वही पाय छै।
चाँद भी जेकर डरेॅ घट-बढ़ छोड़लक
रात-रात भर डरेॅ ठार रहि जाय छै।
रितुपति लंका में विराजै वारहो महीना
लछमी के राखै, विष्णुदेव के दुराय छै।
एकरोॅ आतंक से जगत केना होत मुक्त
बैठी क विचारै कुछ समझी न पाय छै॥9॥

तीनो लोक के प्राणी से रावण अवध्य भेल
नर आरू वारन के रावण दुरैलकै।
मानव सिनी के फूस-फास, घास-पात बूझि
मानव जाति के उपहार ऊ उड़ैलकै।
मानव में कोन विधि देवत्व प्रकट करौं
ब्रह्मदेव देवता से बात-चीत कैलकै।
तखने पहुँचि गेल शौम्य रूप विष्णुदेव
सब देवगण निज विपत सुनैलकै॥10॥

दोहा -

व्यापल तीनो लोक में, रावण के उतपात।
चाहै ई आतंक से, तीनो लोक निजात॥2॥