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अंगिका रामायण / प्रथम सर्ग / भाग 8 / विजेता मुद्‍गलपुरी

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शिव के बरात हेतु देवगन सजि-सजि
रथ साजि-साजि क चलल आसमान सें।
भूत-प्रेत-जोगिनी, अेॅ डाकिनी-साकिनी सब
भाँति-भाँति रूप लेॅ चलल शमशान सें।
देववधु गीत गावै, सब जन हरसावै
आनन्द मनावै शुभ समवेत गान सें।
चलल वियाह करेॅ दुलहा त्रिलोकीनाथ
अक्षत-कुसुम छिटै देवता विमान सें॥71॥

दोहा -

शिवशंकर दुलहा बनल, अशुभ अमंगल रूप।
संग में शिवगण देखि क, हँसि उठलै सुर भूप॥12॥

अजगुनत लागै बड़ी शिव के बरात देखी
एक पर एक अपरूप-रूप धारी छै।
सहस नयन धारी देवराज इन्द्र आरू
तीन-टा नयन धारी खुद त्रिपुरारी छै।
चार मुख वाला ब्रह्मा वेद मंत्र पाठ करै
अपने महेश खुद पाँच मुख धारी छै।
जेहन छै वर, तेहने छै वरियात गण
जेहने बरात तेहने सब सवारी छै॥72॥

केकरो त मुख नै छै, केकरो सहस्त्र मुख
केकरो छै मुख जे कि पीठ दिश घुमलोॅ।
केकरो त हाथ नै छै, केकरो सहस्त्र हाथ
केकरो त हाथ छै कपार पर उगलोॅ।
केकरो त आँख नै छै, केकरो सहस्त्र आँख
केकरो त आँख लागै दीप जकाँ बरलोॅ।
भनत विजेता भूत-प्रेत के जमात देखि
सब के रोॅ मन लागै सहमलोॅद्व डरलोॅ॥73॥

केकरो त तन लागै मांस के रोॅ सिल्ली जकाँ
कोनो-कोनो असथी पंजर जका लागलै।
कोनो नरमुंड धारै, अशुभ ध्वनि उचारै
भयंकर कोनो महाकाल सन लागलै।
कोनो-कोनो स्वानमुख, गदहा-गिदरमुख
काकमुख, सूअर-उलूकमुख लागलै।
जौने कोनो देखलक शंभु के वरात ऐतें
डर के चिग्घारी बाप-बाप कही भागलै॥74॥

डमरू के ताल पर नाचै सब भूत-प्रेत
योगी-यति सब हर-हर शिव गावै छै।
दुलहो से आगू चलै देव के जमात सब
अपनोॅ स्वरूप पर सब इतरावै छै।
रसता में देखैजौने शिव के वरात तौने
भागै जान लेॅ केॅ फेरो नजर न आवै छै।
हुलकि-बुलकि देखै भुतनी के नाच जौने
एक दोसरा के पास चरचा चलावै छै॥75॥

बसहा बरद पर उलटे सवार शिव
धरने छै पूछ जब ब्याह लेली जाय छै।
मुँह ससुराल दिश करै लेॅ कहै छै देव
पूछ ही धरम छिकै शिव बतलाय छै।
दोसरोॅ कि चित ससुराल से बंधल नै छै
इहेॅ लेली मुँह घर दिश रहि जाय छै।
तेसरोॅ छै कारण अरूची के वियाह छिक
फेरियो जों दियेॅ त ऊ बढ़ियें बुझाय छै॥76॥

दोहे -

पागल दुलहा बोलि केॅ, दियेॅ कहीं जों फेरि।
लौटै में यै हाल में, तनिक न लागत देर॥13॥

यहाँ भूत-वैताल सब, बिचरै सगर स्वछन्द।
वहाँ हिमाचल के नगर, बसै परम आनन्द॥14॥

जे नगर में जनम लेलकी जगत माता
ऊ नगर लागै सुरपुर के समान छै।
यहाँ त विधाता के रोॅ किरती अजीव लागै
रिद्धि-सिद्धि-सम्पतित्त समस्त सुख खान छै।
हिम नगरी के शोभा देखि सब लोग कहै
आजु ई नगर लागै केहनोॅ सोहान छै।
शोभै वन-बाग-कूप-सरित-तराग सब
पसरल सगरो मधुर धुन गाज छै॥77॥

देश-देश से जुमल राजा महाराजा सब
ऋषि-मुनि, योगी-यति सब एक साथ छै।
नगर में ठाम-ठाम फैलल प्रकाश जब
दिन केॅ भी मुँह दूसेॅ अजका ई रात छै।
छन में ही एक बात सगरो पसरि गेल
नगर समीप आवी गेलोॅ बरियात छै।
सुनते ही लोग दौड़ी गेल अगवानी लेली
सब से अगारी बुतरू के रोॅ जमात छै॥78॥

दुलहो से आगू रहै देवता समाज सब
जिनका कि देखि मन आनन्द से भरलै।
तेकरा पीछू में रहै शिव के समाज सब
देखतें नगर वासी बड़ी जोर डरलै।
बच्चा-बुतरू त सब जान लेॅ केॅ भागि गेल
जे रहै सयान उहो कोनो न ठहरलै।
घर ऐतें-ऐतें सब बुतरू अचेत भेल
रसता में जेतना न गिरलै बजरलै॥79॥

होश में जे आवै भूत-भूत कही चिचियावै
माता समझी न पावै केना क ई डरलै।
ढ़ाड़स बंधावै माता भाँति-भाँति समझावै
बच्चा उठी भूत-भूत कही क चिकरलै
गोदी में उठावै माता छाती से लगावै पूत
बच्चा आँख खोललक फेरू चीख परलै।
माता घबरावै-समझावै-सहलावै-चूमै
मीठ बोल सुनि बच्चा आँख खोलेॅ पारलेॅ॥80॥