Last modified on 19 जनवरी 2016, at 14:14

अंगिया / नज़ीर अकबराबादी

सफ़ाई उसकी झलकती है गोरे सीने में।
चमक कहां है यह अलमास के नगीने में॥
न तूई है, न किनारी, न गोखरू तिस पर।
सजी है शोख़ ने अंगिया बनत के मीने में॥
जो पूछा मैं कि ”कहां थी“ तो हंस के यों बोली।
मैं लग रही थी इस अंगिया मुई के सीने में॥
पड़ा जो हाथ मेरा सीने पर तो हाथ झटक।
पुकारी आग लगे आह! इस करीने में॥
जो ऐसा ही है तो अब हम न रोज़ आवेंगे।
कभू जो आए तो हफ़्ते में या महीने में॥
कभू मटक, कभू बस बस, कभू प्याला पटक।
दिमाग करती थी क्या क्या शराब पीने में॥
चढ़ी जो दौड़ के कोठे पे वह परी इक बार।
तो मैंने जा लिया उसको उधर के ज़ीने में॥
वह पहना करती थी अंगिया जो सुर्ख़ लाही की।
लिपट के तन से वह तर हो गई पसीने में॥
यह सुर्ख़ अंगिया जो देखी है उस परी की ”नज़ीर“।
मुझे तो आग सी कुछ लग रही है सीने में॥

शब्दार्थ
<references/>