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अंतर-सौंदर्य / जगन्नाथप्रसाद 'मिलिंद'

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कहते हैं, इन अधरों से तुमने लज्जित किए गुलाब, प्रिये;
अनजान, मोह की, यौवन के प्याले में, भरी शराब, प्रिये!
पर, दो दिन खिलकर इन्हें सदा के लिए म्लान हो जाना है;
मद के उतार पर रूखेपन की लंबी अवधि बिताना है।
माना, इन अमल कपोलों ने ज्योत्स्ना को मलिन बनया है,
सौभाग्य जुही का छीन लिया, मुक्ता का मान घटाया है;
पर, दो दिन आभा दिखा, इन्हें भी अपनी कांति गँवाना है,
पीले-पत्तों-सा जरा-शिशिर के चरणों में चढ़ जाना है।
संभवतः इन नयनों ने शर-धारा को कुंठित सिद्ध किया,
व्रत-संयम में बाधा डाली, जप-तप के उर को विद्ध किया;
पर, इनको भी तो काल-चक्र के आगे नत हो जाना है,
खो तेज किसी दिन अंधकार के अंचल में सो जाना है।
भ्रम है, यदि तुम समझो—मैंने इस नश्वर तन को प्यार किया,
इन लोचन-अधर-कपोलों को चाहा, सुंदर स्वीकार किया;
वह मर्म और है, जिसे हृदय की धड़कन में पहचाना है,
जिसके कारण, प्रेयसि, मैंने तुमको चिर-सुंदर माना है!
पथिकों-से ‘युग’ जिसके चरणों में कर जाते विश्राम, प्रिये,
श्रद्धा के पुष्प चढ़ा जाते हैं ‘जन्म-मरण’ निष्काम, प्रिये,
जिसकी मृदुता में ‘जरा’—‘पतन’ के छिपे न तीखे शूल, प्रिये,
वह प्रेम तुम्हारे उर का है इस सुंदरता का मूल, प्रिये!