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अंधकार-युग वह भारत का जब जातीय ज्योति थी क्षीण / गुलाब खंडेलवाल

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अंधकार-युग वह भारत का जब जातीय ज्योति थी क्षीण
द्वाभा के मयंक-सी, दिक्-दिक् हिम की-सी जड़ता थी मौन
महानाश-सी मुँह फैलाये, बढीं तिमिर की लहरें पीन
ग्रस लेंने जब हमें, लकुटिया लिए बचाने आया कौन--
 
नव प्रभात का अग्रदूत बन, जिसकी सबल गिरा सुनते
शत दशाब्दियों की वह निद्रा भग्न हो गयी ज्यों दु:स्वप्न
विकल रोग-शय्या का, आत्मा बनी अमल गुनते-गुनते 
जिसके संदेशों को, चिर आकाश-कुसुम मिल गया अयत्न  
 
वह आकाश-कुसुम जिसको प्रताप ने ढूँढ़ा जीवन भर
अरावली के गिरि-श्रृंगों पर, वह जिसके हित वीर शिवा
फिरा वनों की ख़ाक छानता करतल पर मस्तक लेकर,
वह जो अगणित रसिकों को सूली-शय्या पर गया लिवा,
 
कौन अमृत-फल वही हमारे मुख के सम्मुख गिरा गया!
फिरा हमें खोयी स्वतंत्रता, हमसे आँखें फिरा गया!