भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अंधकार में चली गई है / अज्ञेय

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:17, 3 फ़रवरी 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अज्ञेय |संग्रह=आँगन के पार द्वार / अज्ञेय }} {{KKCatKavita}}…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अँधकार में चली गई है
काली रेखा
दूर-दूर पार तक ।

इसी लीक को थामे मैं
बढ़ता आया हूँ
बार-बार द्वार तक ।

ठिठक गया हूँ वहाँ :
खोज यह दे सकती है मार तक ।

चलने की है यही प्रतिज्ञा
पहुँच सकूँगा मैं
प्रकाश के पारावार तक;

क्यों चलना यदि पथ है केवल
मेरे अंधकार से
सब के अंधकार तक ?
        -या कि लाँघ कर ही उस को
         पहुँचा जावेगा
         सब-कुछ धारण करने वाली पारमिता करुणा तक-
        निर्वैयक्तिक प्यार तक ?