Last modified on 4 मई 2011, at 22:57

अंधकार में चली गई है / अज्ञेय

अँधकार में चली गई है
काली रेखा
दूर-दूर पार तक ।

इसी लीक को थामे मैं
बढ़ता आया हूँ
बार-बार द्वार तक ।

ठिठक गया हूँ वहाँ :
खोज यह दे सकती है मार तक ।

चलने की है यही प्रतिज्ञा
पहुँच सकूँगा मैं
प्रकाश के पारावार तक;

क्यों चलना यदि पथ है केवल
मेरे अंधकार से
सब के अंधकार तक ?
        -या कि लाँघ कर ही उस को
         पहुँचा जावेगा
         सब-कुछ धारण करने वाली पारमिता करुणा तक-
        निर्वैयक्तिक प्यार तक ?