भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अंधा राही अंधी राहें होनी का जल उठा दिया / प्रमिल चन्द्र सरीन 'अंजान'

Kavita Kosh से
Abhishek Amber (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:02, 26 सितम्बर 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रमिल चन्द्र सरीन 'अंजान' |अनुवा...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अंधा राही अंधी राहें होनी का जल उठा दिया
दिल के आंखें उग आईं हैं मैंने सब कुछ देख लिया

ज़ख्मों को मैं पाल रहा था ठीक वो कैसे हो जाते
चारागरों ने ज़ोर लगाया कुछ न दवा ने काम किया

उड़ते पंछी के पर गिनना कुछ इतना आसान न था
मैंने वो भी करके दिखाया मुश्किल को आसान किया

जैसे भी हो मैंने यारो उसकी राहें रौशन कर दीं
चाहे अपने दिल को जलाया चाहे घर को फूंक दिया

मेरी इमदादों का लेखा उसको बिल्कुल याद नहीं
मंज़िल पर जब वो जा पहुंचा भूल गया सब लिया दिया

नारायण भी बच नहीं पाए नेकी करके नारद से
राम जी बन के बन भटके बोल रहे थे सिया सिया

इक तू है जो तूने मुझ पर क़दम पर सितम किये
और इक मैं हूँ मैंने हंसकर तेरी जफ़ा का ज़हर पिया।