"अंधेरे में / भाग 1 / गजानन माधव मुक्तिबोध" के अवतरणों में अंतर
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ज़िन्दगी के... | ज़िन्दगी के... | ||
− | ::कमरों में अँधेरे | + | ::कमरों में अँधेरे |
− | ::लगाता है चक्कर | + | ::लगाता है चक्कर |
− | ::कोई एक लगातार; | + | ::कोई एक लगातार; |
− | आवाज़ पैरों की देती है सुनाई | + | आवाज़ पैरों की देती है सुनाई |
− | बार-बार....बार-बार, | + | बार-बार....बार-बार, |
− | वह नहीं दीखता... नहीं ही दीखता, | + | वह नहीं दीखता... नहीं ही दीखता, |
− | किन्तु वह रहा घूम | + | किन्तु वह रहा घूम |
− | तिलस्मी खोह में ग़िरफ्तार कोई एक, | + | तिलस्मी खोह में ग़िरफ्तार कोई एक, |
− | भीत-पार आती हुई पास से, | + | भीत-पार आती हुई पास से, |
− | गहन रहस्यमय अन्धकार ध्वनि-सा | + | गहन रहस्यमय अन्धकार ध्वनि-सा |
− | ::अस्तित्व जनाता | + | ::अस्तित्व जनाता |
− | ::अनिवार कोई एक, | + | ::अनिवार कोई एक, |
− | और मेरे हृदय की धक्-धक् | + | और मेरे हृदय की धक्-धक् |
− | पूछती है--वह कौन | + | पूछती है--वह कौन |
− | सुनाई जो देता, पर नहीं देता दिखाई ! | + | सुनाई जो देता, पर नहीं देता दिखाई ! |
− | इतने में अकस्मात गिरते हैं भीतर से | + | इतने में अकस्मात गिरते हैं भीतर से |
− | फूले हुए पलस्तर, | + | फूले हुए पलस्तर, |
− | खिरती है चूने-भरी रेत | + | खिरती है चूने-भरी रेत |
− | खिसकती हैं पपड़ियाँ इस तरह-- | + | खिसकती हैं पपड़ियाँ इस तरह-- |
− | ख़ुद-ब-ख़ुद | + | ख़ुद-ब-ख़ुद |
− | कोई बड़ा चेहरा बन जाता है, | + | कोई बड़ा चेहरा बन जाता है, |
− | स्वयमपि | + | स्वयमपि |
− | मुख बन जाता है दिवाल पर, | + | मुख बन जाता है दिवाल पर, |
− | नुकीली नाक और | + | नुकीली नाक और |
− | भव्य ललाट है, | + | भव्य ललाट है, |
− | दृढ़ हनु | + | दृढ़ हनु |
− | कोई अनजानी अन-पहचानी आकृति। | + | कोई अनजानी अन-पहचानी आकृति। |
− | कौन वह दिखाई जो देता, पर | + | कौन वह दिखाई जो देता, पर |
− | नहीं जाना जाता है !! | + | नहीं जाना जाता है !! |
− | कौन मनु ? | + | कौन मनु ? |
− | बाहर शहर के, पहाड़ी के उस पार, तालाब... | + | बाहर शहर के, पहाड़ी के उस पार, तालाब... |
− | अँधेरा सब ओर, | + | अँधेरा सब ओर, |
− | निस्तब्ध जल, | + | निस्तब्ध जल, |
− | पर, भीतर से उभरती है सहसा | + | पर, भीतर से उभरती है सहसा |
− | सलिल के तम-श्याम शीशे में कोई श्वेत आकृति | + | सलिल के तम-श्याम शीशे में कोई श्वेत आकृति |
− | कुहरीला कोई बड़ा चेहरा फैल जाता है | + | कुहरीला कोई बड़ा चेहरा फैल जाता है |
− | और मुसकाता है, | + | और मुसकाता है, |
− | पहचान बताता है, | + | पहचान बताता है, |
− | किन्तु, मैं हतप्रभ, | + | किन्तु, मैं हतप्रभ, |
− | नहीं वह समझ में आता। | + | नहीं वह समझ में आता। |
− | अरे ! अरे !! | + | अरे ! अरे !! |
− | तालाब के आस-पास अँधेरे में वन-वृक्ष | + | तालाब के आस-पास अँधेरे में वन-वृक्ष |
− | चमक-चमक उठते हैं हरे-हरे अचानक | + | चमक-चमक उठते हैं हरे-हरे अचानक |
− | वृक्षों के शीशे पर नाच-नाच उठती हैं बिजलियाँ, | + | वृक्षों के शीशे पर नाच-नाच उठती हैं बिजलियाँ, |
− | शाखाएँ, डालियाँ झूमकर झपटकर | + | शाखाएँ, डालियाँ झूमकर झपटकर |
− | चीख़, एक दूसरे पर पटकती हैं सिर कि अकस्मात्-- | + | चीख़, एक दूसरे पर पटकती हैं सिर कि अकस्मात्-- |
− | वृक्षों के अँधेरे में छिपी हुई किसी एक | + | वृक्षों के अँधेरे में छिपी हुई किसी एक |
− | तिलस्मी खोह का शिला-द्वार | + | तिलस्मी खोह का शिला-द्वार |
− | खुलता है धड़ से | + | खुलता है धड़ से |
− | ........................ | + | ........................ |
− | घुसती है लाल-लाल मशाल अजीब-सी | + | घुसती है लाल-लाल मशाल अजीब-सी |
− | अन्तराल-विवर के तम में | + | अन्तराल-विवर के तम में |
− | लाल-लाल कुहरा, | + | लाल-लाल कुहरा, |
− | कुहरे में, सामने, रक्तालोक-स्नात पुरुष एक, | + | कुहरे में, सामने, रक्तालोक-स्नात पुरुष एक, |
− | रहस्य साक्षात् !! | + | रहस्य साक्षात् !! |
− | तेजो प्रभामय उसका ललाट देख | + | तेजो प्रभामय उसका ललाट देख |
− | मेरे अंग-अंग में अजीब एक थरथर | + | मेरे अंग-अंग में अजीब एक थरथर |
− | गौरवर्ण, दीप्त-दृग, सौम्य-मुख | + | गौरवर्ण, दीप्त-दृग, सौम्य-मुख |
− | सम्भावित स्नेह-सा प्रिय-रूप देखकर | + | सम्भावित स्नेह-सा प्रिय-रूप देखकर |
− | विलक्षण शंका, | + | विलक्षण शंका, |
− | भव्य आजानुभुज देखते ही साक्षात् | + | भव्य आजानुभुज देखते ही साक्षात् |
− | गहन एक संदेह। | + | गहन एक संदेह। |
− | वह रहस्यमय व्यक्ति | + | वह रहस्यमय व्यक्ति |
− | अब तक न पायी गयी मेरी अभिव्यक्ति है | + | अब तक न पायी गयी मेरी अभिव्यक्ति है |
− | पूर्ण अवस्था वह | + | पूर्ण अवस्था वह |
− | निज-सम्भावनाओं, निहित प्रभावों, प्रतिमाओं की, | + | निज-सम्भावनाओं, निहित प्रभावों, प्रतिमाओं की, |
− | मेरे परिपूर्ण का आविर्भाव, | + | मेरे परिपूर्ण का आविर्भाव, |
− | हृदय में रिस रहे ज्ञान का तनाव वह, | + | हृदय में रिस रहे ज्ञान का तनाव वह, |
− | आत्मा की प्रतिमा। | + | आत्मा की प्रतिमा। |
− | प्रश्न थे गम्भीर, शायद ख़तरनाक भी, | + | प्रश्न थे गम्भीर, शायद ख़तरनाक भी, |
− | इसी लिए बाहर के गुंजान | + | इसी लिए बाहर के गुंजान |
− | जंगलों से आती हुई हवा ने | + | जंगलों से आती हुई हवा ने |
− | फूँक मार एकाएक मशाल ही बुझा दी- | + | फूँक मार एकाएक मशाल ही बुझा दी- |
− | कि मुझको यों अँधेरे में पकड़कर | + | कि मुझको यों अँधेरे में पकड़कर |
− | मौत की सज़ा दी ! | + | मौत की सज़ा दी ! |
− | किसी काले डैश की घनी काली पट्टी ही | + | किसी काले डैश की घनी काली पट्टी ही |
− | आँखों में बँध गयी, | + | आँखों में बँध गयी, |
− | किसी खड़ी पाई की सूली पर मैं टाँग दिया गया, | + | किसी खड़ी पाई की सूली पर मैं टाँग दिया गया, |
− | किसी शून्य बिन्दु के अँधियारे खड्डे में | + | किसी शून्य बिन्दु के अँधियारे खड्डे में |
− | ::गिरा दिया गया मैं | + | ::गिरा दिया गया मैं |
::अचेतन स्थिति में ! | ::अचेतन स्थिति में ! | ||
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12:46, 26 अप्रैल 2012 के समय का अवतरण
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ज़िन्दगी के...
कमरों में अँधेरे
लगाता है चक्कर
कोई एक लगातार;
आवाज़ पैरों की देती है सुनाई
बार-बार....बार-बार,
वह नहीं दीखता... नहीं ही दीखता,
किन्तु वह रहा घूम
तिलस्मी खोह में ग़िरफ्तार कोई एक,
भीत-पार आती हुई पास से,
गहन रहस्यमय अन्धकार ध्वनि-सा
अस्तित्व जनाता
अनिवार कोई एक,
और मेरे हृदय की धक्-धक्
पूछती है--वह कौन
सुनाई जो देता, पर नहीं देता दिखाई !
इतने में अकस्मात गिरते हैं भीतर से
फूले हुए पलस्तर,
खिरती है चूने-भरी रेत
खिसकती हैं पपड़ियाँ इस तरह--
ख़ुद-ब-ख़ुद
कोई बड़ा चेहरा बन जाता है,
स्वयमपि
मुख बन जाता है दिवाल पर,
नुकीली नाक और
भव्य ललाट है,
दृढ़ हनु
कोई अनजानी अन-पहचानी आकृति।
कौन वह दिखाई जो देता, पर
नहीं जाना जाता है !!
कौन मनु ?
बाहर शहर के, पहाड़ी के उस पार, तालाब...
अँधेरा सब ओर,
निस्तब्ध जल,
पर, भीतर से उभरती है सहसा
सलिल के तम-श्याम शीशे में कोई श्वेत आकृति
कुहरीला कोई बड़ा चेहरा फैल जाता है
और मुसकाता है,
पहचान बताता है,
किन्तु, मैं हतप्रभ,
नहीं वह समझ में आता।
अरे ! अरे !!
तालाब के आस-पास अँधेरे में वन-वृक्ष
चमक-चमक उठते हैं हरे-हरे अचानक
वृक्षों के शीशे पर नाच-नाच उठती हैं बिजलियाँ,
शाखाएँ, डालियाँ झूमकर झपटकर
चीख़, एक दूसरे पर पटकती हैं सिर कि अकस्मात्--
वृक्षों के अँधेरे में छिपी हुई किसी एक
तिलस्मी खोह का शिला-द्वार
खुलता है धड़ से
........................
घुसती है लाल-लाल मशाल अजीब-सी
अन्तराल-विवर के तम में
लाल-लाल कुहरा,
कुहरे में, सामने, रक्तालोक-स्नात पुरुष एक,
रहस्य साक्षात् !!
तेजो प्रभामय उसका ललाट देख
मेरे अंग-अंग में अजीब एक थरथर
गौरवर्ण, दीप्त-दृग, सौम्य-मुख
सम्भावित स्नेह-सा प्रिय-रूप देखकर
विलक्षण शंका,
भव्य आजानुभुज देखते ही साक्षात्
गहन एक संदेह।
वह रहस्यमय व्यक्ति
अब तक न पायी गयी मेरी अभिव्यक्ति है
पूर्ण अवस्था वह
निज-सम्भावनाओं, निहित प्रभावों, प्रतिमाओं की,
मेरे परिपूर्ण का आविर्भाव,
हृदय में रिस रहे ज्ञान का तनाव वह,
आत्मा की प्रतिमा।
प्रश्न थे गम्भीर, शायद ख़तरनाक भी,
इसी लिए बाहर के गुंजान
जंगलों से आती हुई हवा ने
फूँक मार एकाएक मशाल ही बुझा दी-
कि मुझको यों अँधेरे में पकड़कर
मौत की सज़ा दी !
किसी काले डैश की घनी काली पट्टी ही
आँखों में बँध गयी,
किसी खड़ी पाई की सूली पर मैं टाँग दिया गया,
किसी शून्य बिन्दु के अँधियारे खड्डे में
गिरा दिया गया मैं
अचेतन स्थिति में !