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"अंधेरे में / भाग 5 / गजानन माधव मुक्तिबोध" के अवतरणों में अंतर

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एकाएक थरथर रेंग गयी सिर तक,  
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क्या वह संकेत, क्या वह इशारा?  
मकानों के ऊपर प्रकाश-सा छा रहा गेरुआ।<br>
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क्या वह चिट्ठी है किसी की?  
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कौन-सा इंगित?  
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घूम गयी पृथ्वी, घूम गया आकाश,<br>
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बन्दूक़ धाँय-धाँय  
पत्थर, सीढ़ी दिख गयी, उस पार<br>
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मकानों के ऊपर प्रकाश-सा छा रहा गेरुआ।  
चुपचाप बैठ गया सिर पकड़कर!!<br>
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भागता मैं दम छोड़
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घूम गया कई मोड़।  
चक्कर........भँवरें<br>
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घूम गयी पृथ्वी, घूम गया आकाश,  
भँवरों के गोल-गोल केन्द्र में दीखा<br>
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और फिर, किसी एक मुँदे हुए घर की  
स्वप्न सरीखा--<br><br>
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पत्थर, सीढ़ी दिख गयी, उस पार  
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चुपचाप बैठ गया सिर पकड़कर!!  
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दिमाग में चक्कर  
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चक्कर........भँवरें  
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भँवरों के गोल-गोल केन्द्र में दीखा  
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स्वप्न सरीखा--
  
भूमि की सतहों के बहुत-बहुत नीचे<br>
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भूमि की सतहों के बहुत-बहुत नीचे  
अँधियारी एकान्त<br>
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प्राकृत गुहा एक।<br>
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प्राकृत गुहा एक।  
विस्तृत खोह के साँवले तल में<br>
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तिमिर को भेदकर चमकते हैं पत्थर<br>
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तिमिर को भेदकर चमकते हैं पत्थर  
मणि तेजस्क्रिय रेडियो-एक्टिव रत्न भी बिखरे,<br>
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मणि तेजस्क्रिय रेडियो-एक्टिव रत्न भी बिखरे,  
झरता है जिन पर प्रबल प्रपात एक।<br>
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झरता है जिन पर प्रबल प्रपात एक।  
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द्युतिमान् मणियों की अग्नियों पर से<br>
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फिसल-फिसलकर बहती लहरें,<br>
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फिसल-फिसलकर बहती लहरें,  
लहरों के तल में से फूटती हैं किरनें<br>
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रत्नों की रंगीन रूपों की आभा<br>
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फूट निकलती<br>
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खोह की बेडौल भीतें हैं झिलमिल!!<br>
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पाता हूँ निज को खोह के भीतर,<br>
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पाता हूँ निज को खोह के भीतर,  
विलुब्ध नेत्रों से देखता हूँ द्युतियाँ,<br>
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विलुब्ध नेत्रों से देखता हूँ द्युतियाँ,  
मणि तेजस्क्रिय हाथों में लेकर<br>
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विभोर आँखों से देखता हूँ उनको--<br>
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पाता हूँ अकस्मात्<br>
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दीप्ति में वलयित रत्न वे नहीं हैं<br>
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अनुभव, वेदना, विवेक-निष्कर्ष,<br>
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अनुभव, वेदना, विवेक-निष्कर्ष,  
मेरे ही अपने यहाँ पड़े हुए हैं<br>
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विचारों की रक्तिम अग्नि के मणि वे<br>
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प्राण-जल-प्रपात में घुलते हैं प्रतिपल<br>
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प्राण-जल-प्रपात में घुलते हैं प्रतिपल  
अकेले में किरणों की गीली है हलचल<br>
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गीली है हलचल!!<br><br>
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गीली है हलचल!!  
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हाय, हाय! मैंने उन्हे गुहा-वास दे दिया
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लोक-हित क्षेत्र से कर दिया वंचित
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जनोपयोग से वर्जित किया और
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निषिद्ध कर दिया
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खोह में डाल दिया!!
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वे ख़तरनाक थे,
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(बच्चे भीख माँगते) ख़ैर...
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यह न समय है,
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जूझना ही तय है।
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12:53, 26 अप्रैल 2012 के समय का अवतरण

एकाएक मुझे भान !!
पीछे से किसी अजनबी ने
कन्धे पर रक्खा हाथ।
चौंकता मैं भयानक
एकाएक थरथर रेंग गयी सिर तक,
नहीं नहीं। ऊपर से गिरकर
कन्धे पर बैठ गया बरगद-पात तक,
क्या वह संकेत, क्या वह इशारा?
क्या वह चिट्ठी है किसी की?
कौन-सा इंगित?
भागता मैं दम छोड़,
घूम गया कई मोड़!!
बन्दूक़ धाँय-धाँय
मकानों के ऊपर प्रकाश-सा छा रहा गेरुआ।
भागता मैं दम छोड़
घूम गया कई मोड़।
घूम गयी पृथ्वी, घूम गया आकाश,
और फिर, किसी एक मुँदे हुए घर की
पत्थर, सीढ़ी दिख गयी, उस पार
चुपचाप बैठ गया सिर पकड़कर!!
दिमाग में चक्कर
चक्कर........भँवरें
भँवरों के गोल-गोल केन्द्र में दीखा
स्वप्न सरीखा--

भूमि की सतहों के बहुत-बहुत नीचे
अँधियारी एकान्त
प्राकृत गुहा एक।
विस्तृत खोह के साँवले तल में
तिमिर को भेदकर चमकते हैं पत्थर
मणि तेजस्क्रिय रेडियो-एक्टिव रत्न भी बिखरे,
झरता है जिन पर प्रबल प्रपात एक।
प्राकृत जल वह आवेग-भरा है,
द्युतिमान् मणियों की अग्नियों पर से
फिसल-फिसलकर बहती लहरें,
लहरों के तल में से फूटती हैं किरनें
रत्नों की रंगीन रूपों की आभा
फूट निकलती
खोह की बेडौल भीतें हैं झिलमिल!!
पाता हूँ निज को खोह के भीतर,
विलुब्ध नेत्रों से देखता हूँ द्युतियाँ,
मणि तेजस्क्रिय हाथों में लेकर
विभोर आँखों से देखता हूँ उनको--
पाता हूँ अकस्मात्
दीप्ति में वलयित रत्न वे नहीं हैं
अनुभव, वेदना, विवेक-निष्कर्ष,
मेरे ही अपने यहाँ पड़े हुए हैं
विचारों की रक्तिम अग्नि के मणि वे
प्राण-जल-प्रपात में घुलते हैं प्रतिपल
अकेले में किरणों की गीली है हलचल
गीली है हलचल!!
हाय, हाय! मैंने उन्हे गुहा-वास दे दिया
लोक-हित क्षेत्र से कर दिया वंचित
जनोपयोग से वर्जित किया और
निषिद्ध कर दिया
खोह में डाल दिया!!
वे ख़तरनाक थे,
(बच्चे भीख माँगते) ख़ैर...
यह न समय है,
जूझना ही तय है।