"अंधेरे में / भाग 8 / गजानन माधव मुक्तिबोध" के अवतरणों में अंतर
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पथरीले चेहरों के ख़ाकी ये कसे ड्रेस<br> | पथरीले चेहरों के ख़ाकी ये कसे ड्रेस<br> | ||
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वे पहचाने-से लगते हैं वाक़ई<br> | वे पहचाने-से लगते हैं वाक़ई<br> | ||
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गाडर कूद पड़े धम से।<br> | गाडर कूद पड़े धम से।<br> | ||
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शून्याकाश में से होते हुए वे<br> | शून्याकाश में से होते हुए वे<br> | ||
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किसी एक बलवान् तन-श्याम लुहार ने बनाया<br> | किसी एक बलवान् तन-श्याम लुहार ने बनाया<br> | ||
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आत्मा के चक्के पर चढ़ाया जा रहा<br> | आत्मा के चक्के पर चढ़ाया जा रहा<br> | ||
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अब युग बदल गया है वाक़ई,<br> | अब युग बदल गया है वाक़ई,<br> | ||
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जिनके कि जल में<br> | जिनके कि जल में<br> | ||
सचेत होकर सैकड़ों सदियाँ, ज्वलन्त अपने<br> | सचेत होकर सैकड़ों सदियाँ, ज्वलन्त अपने<br> | ||
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जिनमें कि डूबे हैं युगानुयुग से<br> | जिनमें कि डूबे हैं युगानुयुग से<br> | ||
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विभिन्न क्षेत्रों में कई तरह से करते हैं संगर,<br> | विभिन्न क्षेत्रों में कई तरह से करते हैं संगर,<br> | ||
मानो कि ज्वाला-पँखरियों से घिरे हुए वे सब<br> | मानो कि ज्वाला-पँखरियों से घिरे हुए वे सब<br> | ||
− | अग्नि के शत-दल-कोष में बैठे!!<br> | + | अग्नि के शत-दल-कोष में बैठे !!<br> |
द्रुत-वेग बहती हैं शक्तियाँ निश्चयी।<br> | द्रुत-वेग बहती हैं शक्तियाँ निश्चयी।<br> | ||
कहीं आग लग गयी, कहीं गोली चल गयी।<br> | कहीं आग लग गयी, कहीं गोली चल गयी।<br> | ||
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मानो कि कल रात किसी अनपेक्षित क्षण में ही सहसा<br> | मानो कि कल रात किसी अनपेक्षित क्षण में ही सहसा<br> | ||
प्रेम कर लिया हो<br> | प्रेम कर लिया हो<br> | ||
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मानो कि उस क्षण<br> | मानो कि उस क्षण<br> | ||
अतिशय मृदु किन्ही बाँहों ने आकर<br> | अतिशय मृदु किन्ही बाँहों ने आकर<br> | ||
कस लिया था इस भाँति कि मुझको<br> | कस लिया था इस भाँति कि मुझको<br> | ||
उस स्वप्न-स्पर्श की, चुम्बन की याद आ रही है,<br> | उस स्वप्न-स्पर्श की, चुम्बन की याद आ रही है,<br> | ||
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अज्ञात प्रणयिनी कौन थी, कौन थी?<br><br> | अज्ञात प्रणयिनी कौन थी, कौन थी?<br><br> | ||
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अलग-अलग वातावरण हैं बेमाप,<br> | अलग-अलग वातावरण हैं बेमाप,<br> | ||
प्रत्येक अर्थ की छाया में अन्य अर्थ<br> | प्रत्येक अर्थ की छाया में अन्य अर्थ<br> | ||
− | झलकता साफ़-साफ़!<br> | + | झलकता साफ़-साफ़ !<br> |
डेस्क पर रखे हुए महान् ग्रन्थों के लेखक<br> | डेस्क पर रखे हुए महान् ग्रन्थों के लेखक<br> | ||
मेरी इन मानसिक क्रियाओं के बन गये प्रेक्षक,<br> | मेरी इन मानसिक क्रियाओं के बन गये प्रेक्षक,<br> | ||
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वह दिखा, वह दिखा<br> | वह दिखा, वह दिखा<br> | ||
वह फिर खो गया किसी जन यूथ में...<br> | वह फिर खो गया किसी जन यूथ में...<br> | ||
− | उठी हुई बाँह यह उठी रह गयी!!<br><br> | + | उठी हुई बाँह यह उठी रह गयी !!<br><br> |
अनखोजी निज-समृद्धि का वह परम उत्कर्ष,<br> | अनखोजी निज-समृद्धि का वह परम उत्कर्ष,<br> | ||
पंक्ति 170: | पंक्ति 170: | ||
मैं उसका शिष्य हूँ<br> | मैं उसका शिष्य हूँ<br> | ||
वह मेरी गुरू है,<br> | वह मेरी गुरू है,<br> | ||
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वह मेरे पास कभी बैठा ही नहीं था,<br> | वह मेरे पास कभी बैठा ही नहीं था,<br> | ||
वह मेरे पास कभी आया ही नहीं था,<br> | वह मेरे पास कभी आया ही नहीं था,<br> | ||
पंक्ति 180: | पंक्ति 180: | ||
अत्यन्त उद्विग्न ज्ञान-तनाव वह<br> | अत्यन्त उद्विग्न ज्ञान-तनाव वह<br> | ||
सकर्मक प्रेम की वह अतिशयता<br> | सकर्मक प्रेम की वह अतिशयता<br> | ||
− | वही फटेहाल रूप!!<br> | + | वही फटेहाल रूप !!<br> |
परम अभिव्यक्ति<br> | परम अभिव्यक्ति<br> | ||
लगातार घूमती है जग में<br> | लगातार घूमती है जग में<br> | ||
पंक्ति 193: | पंक्ति 193: | ||
हर एक देश व राजनैतिक परिस्थिति<br> | हर एक देश व राजनैतिक परिस्थिति<br> | ||
प्रत्येक मानवीय स्वानुभूत आदर्श<br> | प्रत्येक मानवीय स्वानुभूत आदर्श<br> | ||
− | विवेक-प्रक्रिया, क्रियागत परिणति!!<br> | + | विवेक-प्रक्रिया, क्रियागत परिणति !!<br> |
खोजता हूँ पठार...पहाड़...समुन्दर<br> | खोजता हूँ पठार...पहाड़...समुन्दर<br> | ||
जहाँ मिल सके मुझे<br> | जहाँ मिल सके मुझे<br> |
14:10, 3 फ़रवरी 2008 का अवतरण
- 8
- 8
एकाएक हृदय धड़ककर रुक गया, क्या हुआ !!
नगर से भयानक धुआँ उठ रहा है,
कहीं आग लग गयी, कहीं गोली चल गयी।
सड़कों पर मरा हुआ फैला है सुनसान,
हवाओं में अदृश्य ज्वाला की गरमी
गरमी का आवेग।
साथ-साथ घूमते हैं, साथ-साथ रहते हैं,
साथ-साथ सोते हैं, खाते हैं, पीते हैं,
जन-मन उद्देश्य !!
पथरीले चेहरों के ख़ाकी ये कसे ड्रेस
घूमते हैं यंत्रवत्,
वे पहचाने-से लगते हैं वाक़ई
कहीं आग लग गयी, कहीं गोली चल गयी !!
सब चुप, साहित्यिक चुप और कविजन निर्वाक्
चिन्तक, शिल्पकार, नर्तक चुप हैं
उनके ख़याल से यह सब गप है
मात्र किंवदन्ती।
रक्तपायी वर्ग से नाभिनाल-बद्ध ये सब लोग
नपुंसक भोग-शिरा-जालों में उलझे।
प्रश्न की उथली-सी पहचान
राह से अनजान
वाक् रुदन्ती।
चढ़ गया उर पर कहीं कोई निर्दयी,
कहीं आग लग गई, कहीं गोली चल गई।
भव्याकार भवनों के विवरों में छिप गये
समाचारपत्रों के पतियों के मुख स्थल।
गढ़े जाते संवाद,
गढ़ी जाती समीक्षा,
गढ़ी जाती टिप्पणी जन-मन-उर-शूर।
बौद्धिक वर्ग है क्रीतदास,
किराये के विचारों का उद्भास।
बड़े-बड़े चेहरों पर स्याहियाँ पुत गयीं।
नपुंसक श्रद्धा
सड़क के नीचे की गटर में छिप गयी,
कहीं आग लग गयी, कहीं गोली चल गयी।
धुएँ के ज़हरीले मेघों के नीचे ही हर बार
द्रुत निज-विश्लेष-गतियाँ,
एक स्पिलट सेकेण्ड में शत साक्षात्कार।
टूटते हैं धोखों से भरे हुए सपने।
रक्त में बहती हैं शान की किरनें
विश्व की मूर्ति में आत्मा ही ढल गयी,
कहीं आग लग गयी, कहीं गोली चल गयी।
राह के पत्थर-ढोकों के अन्दर
पहाड़ों के झरने
तड़पने लग गये।
मिट्टी के लोंदे के भीतर
भक्ति की अग्नि का उद्रेक
भड़कने लग गया।
धूल के कण में
अनहद नाद का कम्पन
ख़तरनाक !!
मकानों के छत से
गाडर कूद पड़े धम से।
घूम उठे खम्भे
भयानक वेग से चल पड़े हवा में।
दादा का सोंटा भी करता दाँव-पेंच
नाचता है हवा में
गगन में नाच रही कक्का की लाठी।
यहाँ तक कि बच्चे की पेंपें भी उड़तीं,
तेज़ी से लहराती घूमती हैं हवा में
सलेट पट्टी।
एक-एक वस्तु या एक-एक प्राणाग्नि-बम है,
ये परमास्त्र हैं, प्रक्षेपास्त्र हैं, यम हैं।
शून्याकाश में से होते हुए वे
अरे, अरि पर ही टूट पड़े अनिवार।
यह कथा नहीं है, यह सब सच है, भई !!
कहीं आग लग गयी, कहीं गोली चल गयी !!
किसी एक बलवान् तन-श्याम लुहार ने बनाया
कण्डों का वर्तुल ज्वलन्त मण्डल।
स्वर्णिम कमलों की पाँखुरी-जैसी ही
ज्वालाएँ उठती हैं उससे,
और उस गोल-गोल ज्वलन्त रेखा में रक्खा
लोहे का चक्का
चिनगियाँ स्वर्णिम नीली व लाल
फूलों-सी खिलतीं।कुछ बलवान् जन साँवले मुख के
चढ़ा रहे लकड़ी के चक्के पर जबरन
लाल-लाल लोहे की गोल-गोल पट्टी
घन मार घन मार,
उसी प्रकार अब
आत्मा के चक्के पर चढ़ाया जा रहा
संकल्प शक्ति के लोहे का मज़बूत
ज्वलन्त टायर !!
अब युग बदल गया है वाक़ई,
कहीं आग लग गयी, कहीं गोली चल गयी।
गेरुआ मौसम उड़ते हैं अंगार,
जंगल जल रहे ज़िन्दगी के अब
जिनके कि ज्वलन्त-प्रकाशित भीषण
फूलों में बहतीं वेदना नदियाँ
जिनके कि जल में
सचेत होकर सैकड़ों सदियाँ, ज्वलन्त अपने
बिम्ब फेंकतीं !!
वेदना नदियाँ
जिनमें कि डूबे हैं युगानुयुग से
मानो कि आँसू
पिताओं की चिन्ता का उद्विग्न रंग भी,
विवेक-पीड़ा की गहराई बेचैन,
डूबा है जिनमें श्रमिक का सन्ताप।
वह जल पीकर
मेरे युवकों में होता जाता व्यक्तित्वान्तर,
विभिन्न क्षेत्रों में कई तरह से करते हैं संगर,
मानो कि ज्वाला-पँखरियों से घिरे हुए वे सब
अग्नि के शत-दल-कोष में बैठे !!
द्रुत-वेग बहती हैं शक्तियाँ निश्चयी।
कहीं आग लग गयी, कहीं गोली चल गयी।
- x x x
- x x x
एकाएक फिर स्वप्न भंग
बिखर गये चित्र कि मैं फिर अकेला।
मस्तिष्क हृदय में छेद पड़ गये हैं।
पर उन दुखते हुए रन्ध्रों में गहरा
प्रदीप्त ज्योति का रस बस गया है।
मैं उन सपनों का खोजता हूँ आशय,
अर्थों की वेदना घिरती है मन में।
अजीब झमेला।
घूमता है मन उन अर्थों के घावों के आस-पास
आत्मा में चमकीली प्यास भर गयी है।
जग भर दीखती हैं सुनहली तस्वीरें मुझको
मानो कि कल रात किसी अनपेक्षित क्षण में ही सहसा
प्रेम कर लिया हो
जीवन भर के लिए !!
मानो कि उस क्षण
अतिशय मृदु किन्ही बाँहों ने आकर
कस लिया था इस भाँति कि मुझको
उस स्वप्न-स्पर्श की, चुम्बन की याद आ रही है,
याद आ रही है !!
अज्ञात प्रणयिनी कौन थी, कौन थी?
कमरे में सुबह की धूप आ गयी है,
गैलरी में फैला है सुनहला रवि छोर
क्या कोई प्रेमिका सचमुच मिलेगी?
हाय ! यह वेदना स्नेह की गहरी
जाग गयी क्यों कर?
सब ओर विद्युत्तरंगीय हलचल
चुम्बकीय आकर्षण।
प्रत्येक वस्तु का निज-निज आलोक,
मानो कि अलग-अलग फूलों के रंगीन
अलग-अलग वातावरण हैं बेमाप,
प्रत्येक अर्थ की छाया में अन्य अर्थ
झलकता साफ़-साफ़ !
डेस्क पर रखे हुए महान् ग्रन्थों के लेखक
मेरी इन मानसिक क्रियाओं के बन गये प्रेक्षक,
मेरे इस कमरे में आकाश उतरा,
मन यह अन्तरिक्ष-वायु में सिहरा।
उठता हूँ, जाता हूँ, गैलरी में खड़ा हूँ।
एकाएक वह व्यक्ति
आँखों के सामने
गलियों में, सड़कों पर, लोगों की भीड़ में
चला जा रहा है।
वही जन जिसे मैंने देखा था गुहा में।
धड़कता है दिल
कि पुकारने को खुलता है मुँह
कि अकस्मात्--
वह दिखा, वह दिखा
वह फिर खो गया किसी जन यूथ में...
उठी हुई बाँह यह उठी रह गयी !!
अनखोजी निज-समृद्धि का वह परम उत्कर्ष,
परम अभिव्यक्ति
मैं उसका शिष्य हूँ
वह मेरी गुरू है,
गुरू है !!
वह मेरे पास कभी बैठा ही नहीं था,
वह मेरे पास कभी आया ही नहीं था,
तिलस्मी खोह में देखा था एक बार,
आख़िरी बार ही।
पर, वह जगत् की गलियों में घूमता है प्रतिपल
वह फटेहाल रूप।
तडित्तरंगीय वही गतिमयता,
अत्यन्त उद्विग्न ज्ञान-तनाव वह
सकर्मक प्रेम की वह अतिशयता
वही फटेहाल रूप !!
परम अभिव्यक्ति
लगातार घूमती है जग में
पता नहीं जाने कहाँ, जाने कहाँ
वह है।
इसीलिए मैं हर गली में
और हर सड़क पर
झाँक-झाँक देखता हूँ हर एक चेहरा,
प्रत्येक गतिविधि
प्रत्येक चरित्र,
व हर एक आत्मा का इतिहास,
हर एक देश व राजनैतिक परिस्थिति
प्रत्येक मानवीय स्वानुभूत आदर्श
विवेक-प्रक्रिया, क्रियागत परिणति !!
खोजता हूँ पठार...पहाड़...समुन्दर
जहाँ मिल सके मुझे
मेरी वह खोयी हुई
परम अभिव्यक्ति अनिवार
आत्म-सम्भवा।