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"अंधेरे में / भाग 8 / गजानन माधव मुक्तिबोध" के अवतरणों में अंतर

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|रचनाकार=गजानन माधव मुक्तिबोध
 
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<poem>
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एकाएक हृदय धड़ककर रुक गया, क्या हुआ !!
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नगर से भयानक  धुआँ उठ रहा है,
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कहीं आग लग गयी, कहीं गोली चल गयी।
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सड़कों पर मरा हुआ फैला है सुनसान,
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हवाओं में अदृश्य ज्वाला की गरमी
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गरमी का आवेग।
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साथ-साथ घूमते हैं, साथ-साथ रहते हैं,
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साथ-साथ सोते हैं, खाते हैं, पीते हैं,
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जन-मन उद्देश्य !!
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पथरीले चेहरों के ख़ाकी ये कसे ड्रेस
 +
घूमते हैं यंत्रवत्,
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वे पहचाने-से लगते हैं वाक़ई
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कहीं आग लग गयी, कहीं गोली चल गयी !! 
  
एकाएक हृदय धड़ककर रुक गया, क्या हुआ !!<br>
+
सब चुप, साहित्यिक चुप और कविजन निर्वाक्
नगर से भयानक  धुआँ उठ रहा है,<br>
+
चिन्तक, शिल्पकार, नर्तक चुप हैं
कहीं आग लग गयी, कहीं गोली चल गयी।<br>
+
उनके ख़याल से यह सब गप है  
सड़कों पर मरा हुआ फैला है सुनसान,<br>
+
मात्र किंवदन्ती।
हवाओं में अदृश्य ज्वाला की गरमी<br>
+
रक्तपायी वर्ग से नाभिनाल-बद्ध ये सब लोग
गरमी का आवेग।<br>
+
नपुंसक भोग-शिरा-जालों में उलझे।
साथ-साथ घूमते हैं, साथ-साथ रहते हैं,<br>
+
प्रश्न की उथली-सी पहचान
साथ-साथ सोते हैं, खाते हैं, पीते हैं,<br>
+
राह से अनजान
जन-मन उद्देश्य !!<br>
+
वाक् रुदन्ती।
पथरीले चेहरों के ख़ाकी ये कसे ड्रेस<br>
+
चढ़ गया उर पर कहीं कोई निर्दयी,  
घूमते हैं यंत्रवत्,<br>
+
कहीं आग लग गई, कहीं गोली चल गई।
वे पहचाने-से लगते हैं वाक़ई<br>
+
भव्याकार भवनों के विवरों में छिप गये
कहीं आग लग गयी, कहीं गोली चल गयी !!<br><br>
+
समाचारपत्रों के पतियों के मुख स्थल।
 +
गढ़े जाते संवाद,  
 +
गढ़ी जाती समीक्षा,
 +
गढ़ी जाती टिप्पणी जन-मन-उर-शूर।
 +
बौद्धिक वर्ग है क्रीतदास,
 +
किराये के विचारों का उद्भास।
 +
बड़े-बड़े चेहरों पर स्याहियाँ पुत गयीं।
 +
नपुंसक श्रद्धा
 +
सड़क के नीचे की गटर में छिप गयी,
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कहीं आग लग गयी, कहीं गोली चल गयी।
 +
धुएँ के ज़हरीले मेघों के नीचे ही हर बार
 +
द्रुत निज-विश्लेष-गतियाँ,
 +
एक स्पिलट सेकेण्ड में शत साक्षात्कार।
 +
टूटते हैं धोखों से भरे हुए सपने।
 +
रक्त में बहती हैं शान की किरनें
 +
विश्व की मूर्ति में आत्मा ही ढल गयी,
 +
कहीं आग लग गयी, कहीं गोली चल गयी। 
  
सब चुप, साहित्यिक चुप और कविजन निर्वाक्<br>
+
राह के पत्थर-ढोकों के अन्दर
चिन्तक, शिल्पकार, नर्तक चुप हैं<br>
+
पहाड़ों के झरने
उनके ख़याल से यह सब गप है<br>
+
तड़पने लग गये।
मात्र किंवदन्ती।<br>
+
मिट्टी के लोंदे के भीतर
रक्तपायी वर्ग से नाभिनाल-बद्ध ये सब लोग<br>
+
भक्ति की अग्नि का उद्रेक
नपुंसक भोग-शिरा-जालों में उलझे।<br>
+
भड़कने लग गया।
प्रश्न की उथली-सी पहचान<br>
+
धूल के कण में
राह से अनजान<br>
+
अनहद नाद का कम्पन
वाक् रुदन्ती।<br>
+
ख़तरनाक !!
चढ़ गया उर पर कहीं कोई निर्दयी,<br>
+
मकानों के छत से
कहीं आग लग गई, कहीं गोली चल गई।<br>
+
गाडर कूद पड़े धम से।
भव्याकार भवनों के विवरों में छिप गये<br>
+
घूम उठे खम्भे
समाचारपत्रों के पतियों के मुख स्थल।<br>
+
भयानक वेग से चल पड़े हवा में।
गढ़े जाते संवाद,<br>
+
दादा का सोंटा भी करता दाँव-पेंच
गढ़ी जाती समीक्षा, <br>
+
नाचता है हवा में  
गढ़ी जाती टिप्पणी जन-मन-उर-शूर।<br>
+
गगन में नाच रही कक्का की लाठी।
बौद्धिक वर्ग है क्रीतदास,<br>
+
यहाँ तक कि बच्चे की पेंपें भी उड़तीं,  
किराये के विचारों का उद्भास।<br>
+
तेज़ी से लहराती घूमती हैं हवा में
बड़े-बड़े चेहरों पर स्याहियाँ पुत गयीं।<br>
+
सलेट पट्टी।
नपुंसक श्रद्धा<br>
+
एक-एक वस्तु या एक-एक प्राणाग्नि-बम है,  
सड़क के नीचे की गटर में छिप गयी,<br>
+
ये परमास्त्र हैं, प्रक्षेपास्त्र हैं, यम हैं।
कहीं आग लग गयी, कहीं गोली चल गयी।<br>
+
शून्याकाश में से होते हुए वे
धुएँ के ज़हरीले मेघों के नीचे ही हर बार<br>
+
अरे, अरि पर ही टूट पड़े अनिवार।
द्रुत निज-विश्लेष-गतियाँ,<br>
+
यह कथा नहीं है, यह सब सच है, भई !!
एक स्पिलट सेकेण्ड में शत साक्षात्कार।<br>
+
कहीं आग लग गयी, कहीं गोली चल गयी !! 
टूटते हैं धोखों से भरे हुए सपने।<br>
+
रक्त में बहती हैं शान की किरनें<br>
+
विश्व की मूर्ति में आत्मा ही ढल गयी,<br>
+
कहीं आग लग गयी, कहीं गोली चल गयी।<br><br>
+
  
राह के पत्थर-ढोकों के अन्दर<br>
+
किसी एक बलवान् तन-श्याम लुहार ने बनाया
पहाड़ों के झरने<br>
+
कण्डों का वर्तुल ज्वलन्त मण्डल।
तड़पने लग गये।<br>
+
स्वर्णिम कमलों की पाँखुरी-जैसी ही
मिट्टी के लोंदे के भीतर<br>
+
ज्वालाएँ उठती हैं उससे,
भक्ति की अग्नि का उद्रेक<br>
+
और उस गोल-गोल ज्वलन्त रेखा में रक्खा
भड़कने लग गया।<br>
+
लोहे का चक्का
धूल के कण में <br>
+
चिनगियाँ स्वर्णिम नीली व लाल
अनहद नाद का कम्पन<br>
+
फूलों-सी खिलतीं।कुछ बलवान् जन साँवले मुख के  
ख़तरनाक !!<br>
+
चढ़ा रहे लकड़ी के चक्के पर जबरन
मकानों के छत से <br>
+
लाल-लाल लोहे की गोल-गोल पट्टी
गाडर कूद पड़े धम से।<br>
+
घन मार घन मार,  
घूम उठे खम्भे<br>
+
उसी प्रकार अब
भयानक वेग से चल पड़े हवा में।<br>
+
आत्मा के चक्के पर चढ़ाया जा रहा
दादा का सोंटा भी करता दाँव-पेंच<br>
+
संकल्प शक्ति के लोहे का मज़बूत
नाचता है हवा में<br>
+
ज्वलन्त टायर !!  
गगन में नाच रही कक्का की लाठी।<br>
+
अब युग बदल गया है वाक़ई,
यहाँ तक कि बच्चे की पेंपें भी उड़तीं,<br>
+
कहीं आग लग गयी, कहीं गोली चल गयी। 
तेज़ी से लहराती घूमती हैं हवा में<br>
+
सलेट पट्टी।<br>
+
एक-एक वस्तु या एक-एक प्राणाग्नि-बम है,<br>
+
ये परमास्त्र हैं, प्रक्षेपास्त्र हैं, यम हैं।<br>
+
शून्याकाश में से होते हुए वे<br>
+
अरे, अरि पर ही टूट पड़े अनिवार।<br>
+
यह कथा नहीं है, यह सब सच है, भई !!<br>
+
कहीं आग लग गयी, कहीं गोली चल गयी !!<br><br>
+
  
किसी एक बलवान् तन-श्याम लुहार ने बनाया<br>
+
गेरुआ मौसम उड़ते हैं अंगार,
कण्डों का वर्तुल ज्वलन्त मण्डल।<br>
+
जंगल जल रहे ज़िन्दगी के अब
स्वर्णिम कमलों की पाँखुरी-जैसी ही<br>
+
जिनके कि ज्वलन्त-प्रकाशित भीषण
ज्वालाएँ उठती हैं उससे,<br>
+
फूलों में बहतीं वेदना नदियाँ
और उस गोल-गोल ज्वलन्त रेखा में रक्खा<br>
+
जिनके कि जल में
लोहे का चक्का<br>
+
सचेत होकर सैकड़ों सदियाँ, ज्वलन्त अपने
चिनगियाँ स्वर्णिम नीली व लाल<br>
+
बिम्ब फेंकतीं‍‍ !!
फूलों-सी खिलतीं।कुछ बलवान् जन साँवले मुख के<br>
+
वेदना नदियाँ
चढ़ा रहे लकड़ी के चक्के पर जबरन<br>
+
जिनमें कि डूबे हैं युगानुयुग से
लाल-लाल लोहे की गोल-गोल पट्टी<br>
+
मानो कि आँसू
घन मार घन मार,<br>
+
पिताओं की चिन्ता का उद्विग्न रंग भी,  
उसी प्रकार अब<br>
+
विवेक-पीड़ा की गहराई बेचैन,
आत्मा के चक्के पर चढ़ाया जा रहा<br>
+
डूबा है जिनमें श्रमिक का सन्ताप।
संकल्प शक्ति के लोहे का मज़बूत<br>
+
वह जल पीकर
ज्वलन्त टायर !!<br>
+
मेरे युवकों में होता जाता व्यक्तित्वान्तर,
अब युग बदल गया है वाक़ई,<br>
+
विभिन्न क्षेत्रों में कई तरह से करते हैं संगर,
कहीं आग लग गयी, कहीं गोली चल गयी।<br><br>
+
मानो कि ज्वाला-पँखरियों से घिरे हुए वे सब
 +
अग्नि के शत-दल-कोष में बैठे !!
 +
द्रुत-वेग बहती हैं शक्तियाँ निश्चयी।
 +
कहीं आग लग गयी, कहीं गोली चल गयी।
 +
::x                    x                    x
 +
एकाएक फिर स्वप्न भंग
 +
बिखर गये चित्र कि मैं फिर अकेला।
 +
मस्तिष्क हृदय में छेद पड़ गये हैं।
 +
पर उन दुखते हुए रन्ध्रों में गहरा
 +
प्रदीप्त ज्योति का रस बस गया है।
 +
मैं उन सपनों का खोजता हूँ आशय,
 +
अर्थों की वेदना घिरती है मन में।
 +
अजीब झमेला।
 +
घूमता है मन उन अर्थों के घावों के आस-पास
 +
आत्मा में चमकीली प्यास भर गयी है।
 +
जग भर दीखती हैं सुनहली तस्वीरें मुझको
 +
मानो कि कल रात किसी अनपेक्षित क्षण में ही सहसा
 +
प्रेम कर लिया हो
 +
जीवन भर के लिए !!  
 +
मानो कि उस क्षण
 +
अतिशय मृदु किन्ही बाँहों ने आकर
 +
कस लिया था इस भाँति कि मुझको
 +
उस स्वप्न-स्पर्श की, चुम्बन की याद आ रही है,  
 +
याद आ रही है !!
 +
अज्ञात प्रणयिनी कौन थी, कौन थी? 
  
गेरुआ मौसम उड़ते हैं अंगार,<br>
+
कमरे में सुबह की धूप आ गयी है,  
जंगल जल रहे ज़िन्दगी के अब<br>
+
गैलरी में फैला है सुनहला रवि छोर
जिनके कि ज्वलन्त-प्रकाशित भीषण<br>
+
क्या कोई प्रेमिका सचमुच मिलेगी?
फूलों में बहतीं वेदना नदियाँ<br>
+
हाय ! यह वेदना स्नेह की गहरी
जिनके कि जल में<br>
+
जाग गयी क्यों कर?
सचेत होकर सैकड़ों सदियाँ, ज्वलन्त अपने<br>
+
बिम्ब फेंकतीं‍‍ !!<br>
+
वेदना नदियाँ<br>
+
जिनमें कि डूबे हैं युगानुयुग से<br>
+
मानो कि आँसू<br>
+
पिताओं की चिन्ता का उद्विग्न रंग भी,<br>
+
विवेक-पीड़ा की गहराई बेचैन,<br>
+
डूबा है जिनमें श्रमिक का सन्ताप।<br>
+
वह जल पीकर<br>
+
मेरे युवकों में होता जाता व्यक्तित्वान्तर,<br>
+
विभिन्न क्षेत्रों में कई तरह से करते हैं संगर,<br>
+
मानो कि ज्वाला-पँखरियों से घिरे हुए वे सब<br>
+
अग्नि के शत-दल-कोष में बैठे !!<br>
+
द्रुत-वेग बहती हैं शक्तियाँ निश्चयी।<br>
+
कहीं आग लग गयी, कहीं गोली चल गयी।<br>
+
::x                    x                    x<br>
+
एकाएक फिर स्वप्न भंग<br>
+
बिखर गये चित्र कि मैं फिर अकेला।<br>
+
मस्तिष्क हृदय में छेद पड़ गये हैं।<br>
+
पर उन दुखते हुए रन्ध्रों में गहरा<br>
+
प्रदीप्त ज्योति का रस बस गया है।<br>
+
मैं उन सपनों का खोजता हूँ आशय,<br>
+
अर्थों की वेदना घिरती है मन में।<br>
+
अजीब झमेला।<br>
+
घूमता है मन उन अर्थों के घावों के आस-पास<br>
+
आत्मा में चमकीली प्यास भर गयी है।<br>
+
जग भर दीखती हैं सुनहली तस्वीरें मुझको<br>
+
मानो कि कल रात किसी अनपेक्षित क्षण में ही सहसा<br>
+
प्रेम कर लिया हो<br>
+
जीवन भर के लिए !!<br>
+
मानो कि उस क्षण<br>
+
अतिशय मृदु किन्ही बाँहों ने आकर<br>
+
कस लिया था इस भाँति कि मुझको<br>
+
उस स्वप्न-स्पर्श की, चुम्बन की याद आ रही है,<br>
+
याद आ रही है !!<br>
+
अज्ञात प्रणयिनी कौन थी, कौन थी?<br><br>
+
  
कमरे में सुबह की धूप आ गयी है,<br>
+
सब ओर विद्युत्तरंगीय हलचल
गैलरी में फैला है सुनहला रवि छोर<br>
+
चुम्बकीय आकर्षण।
क्या कोई प्रेमिका सचमुच मिलेगी?<br>
+
प्रत्येक वस्तु का निज-निज आलोक,  
हाय ! यह वेदना स्नेह की गहरी<br>
+
मानो कि अलग-अलग फूलों के रंगीन
जाग गयी क्यों कर?<br><br>
+
अलग-अलग वातावरण हैं बेमाप,
 +
प्रत्येक अर्थ की छाया में अन्य अर्थ
 +
झलकता साफ़-साफ़ !
 +
डेस्क पर रखे हुए महान् ग्रन्थों के लेखक
 +
मेरी इन मानसिक क्रियाओं के बन गये प्रेक्षक,
 +
मेरे इस कमरे में आकाश उतरा,
 +
मन यह अन्तरिक्ष-वायु में सिहरा। 
  
सब ओर विद्युत्तरंगीय हलचल<br>
+
उठता हूँ, जाता हूँ, गैलरी में खड़ा हूँ।
चुम्बकीय आकर्षण।<br>
+
एकाएक वह व्यक्ति
प्रत्येक वस्तु का निज-निज आलोक,<br>
+
आँखों के सामने
मानो कि अलग-अलग फूलों के रंगीन<br>
+
गलियों में, सड़कों पर, लोगों की भीड़ में  
अलग-अलग वातावरण हैं बेमाप,<br>
+
चला जा रहा है।
प्रत्येक अर्थ की छाया में अन्य अर्थ<br>
+
वही जन जिसे मैंने देखा था गुहा में।
झलकता साफ़-साफ़ !<br>
+
धड़कता है दिल
डेस्क पर रखे हुए महान् ग्रन्थों के लेखक<br>
+
कि पुकारने को खुलता है मुँह
मेरी इन मानसिक क्रियाओं के बन गये प्रेक्षक,<br>
+
कि अकस्मात्--
मेरे इस कमरे में आकाश उतरा,<br>
+
वह दिखा, वह दिखा
मन यह अन्तरिक्ष-वायु में सिहरा।<br><br>
+
वह फिर खो गया किसी जन यूथ में...
 +
उठी हुई बाँह यह उठी रह गयी !! 
  
उठता हूँ, जाता हूँ, गैलरी में खड़ा हूँ।<br>
+
अनखोजी निज-समृद्धि का वह परम उत्कर्ष,  
एकाएक वह व्यक्ति<br>
+
परम अभिव्यक्ति  
आँखों के सामने<br>
+
मैं उसका शिष्य हूँ  
गलियों में, सड़कों पर, लोगों की भीड़ में<br>
+
वह मेरी गुरू है,  
चला जा रहा है।<br>
+
गुरू है !!  
वही जन जिसे मैंने देखा था गुहा में।<br>
+
वह मेरे पास कभी बैठा ही नहीं था,  
धड़कता है दिल<br>
+
वह मेरे पास कभी आया ही नहीं था,  
कि पुकारने को खुलता है मुँह<br>
+
तिलस्मी खोह में देखा था एक बार,  
कि अकस्मात्--<br>
+
आख़िरी बार ही।  
वह दिखा, वह दिखा<br>
+
पर, वह जगत् की गलियों में घूमता है प्रतिपल  
वह फिर खो गया किसी जन यूथ में...<br>
+
वह फटेहाल रूप।  
उठी हुई बाँह यह उठी रह गयी !!<br><br>
+
तडित्तरंगीय वही गतिमयता,  
 
+
अत्यन्त उद्विग्न ज्ञान-तनाव वह  
अनखोजी निज-समृद्धि का वह परम उत्कर्ष,<br>
+
सकर्मक प्रेम की वह अतिशयता  
परम अभिव्यक्ति<br>
+
वही फटेहाल रूप !!  
मैं उसका शिष्य हूँ<br>
+
परम अभिव्यक्ति  
वह मेरी गुरू है,<br>
+
लगातार घूमती है जग में  
गुरू है !!<br>
+
पता नहीं जाने कहाँ, जाने कहाँ  
वह मेरे पास कभी बैठा ही नहीं था,<br>
+
वह है।  
वह मेरे पास कभी आया ही नहीं था,<br>
+
इसीलिए मैं हर गली में
तिलस्मी खोह में देखा था एक बार,<br>
+
और हर सड़क पर  
आख़िरी बार ही।<br>
+
झाँक-झाँक देखता हूँ हर एक चेहरा,  
पर, वह जगत् की गलियों में घूमता है प्रतिपल<br>
+
प्रत्येक गतिविधि  
वह फटेहाल रूप।<br>
+
प्रत्येक चरित्र,  
तडित्तरंगीय वही गतिमयता,<br>
+
व हर एक आत्मा का इतिहास,  
अत्यन्त उद्विग्न ज्ञान-तनाव वह<br>
+
हर एक देश व राजनैतिक परिस्थिति  
सकर्मक प्रेम की वह अतिशयता<br>
+
प्रत्येक मानवीय स्वानुभूत आदर्श  
वही फटेहाल रूप !!<br>
+
विवेक-प्रक्रिया, क्रियागत परिणति !!  
परम अभिव्यक्ति<br>
+
खोजता हूँ पठार...पहाड़...समुन्दर  
लगातार घूमती है जग में<br>
+
जहाँ मिल सके मुझे  
पता नहीं जाने कहाँ, जाने कहाँ<br>
+
मेरी वह खोयी हुई  
वह है।<br>
+
परम अभिव्यक्ति अनिवार  
इसीलिए मैं हर गली में <br>
+
और हर सड़क पर<br>
+
झाँक-झाँक देखता हूँ हर एक चेहरा,<br>
+
प्रत्येक गतिविधि<br>
+
प्रत्येक चरित्र,<br>
+
व हर एक आत्मा का इतिहास,<br>
+
हर एक देश व राजनैतिक परिस्थिति<br>
+
प्रत्येक मानवीय स्वानुभूत आदर्श<br>
+
विवेक-प्रक्रिया, क्रियागत परिणति !!<br>
+
खोजता हूँ पठार...पहाड़...समुन्दर<br>
+
जहाँ मिल सके मुझे<br>
+
मेरी वह खोयी हुई<br>
+
परम अभिव्यक्ति अनिवार<br>
+
 
आत्म-सम्भवा।
 
आत्म-सम्भवा।
 +
</poem>

12:55, 26 अप्रैल 2012 के समय का अवतरण

एकाएक हृदय धड़ककर रुक गया, क्या हुआ !!
नगर से भयानक धुआँ उठ रहा है,
कहीं आग लग गयी, कहीं गोली चल गयी।
सड़कों पर मरा हुआ फैला है सुनसान,
हवाओं में अदृश्य ज्वाला की गरमी
गरमी का आवेग।
साथ-साथ घूमते हैं, साथ-साथ रहते हैं,
साथ-साथ सोते हैं, खाते हैं, पीते हैं,
जन-मन उद्देश्य !!
पथरीले चेहरों के ख़ाकी ये कसे ड्रेस
घूमते हैं यंत्रवत्,
वे पहचाने-से लगते हैं वाक़ई
कहीं आग लग गयी, कहीं गोली चल गयी !!

सब चुप, साहित्यिक चुप और कविजन निर्वाक्
चिन्तक, शिल्पकार, नर्तक चुप हैं
उनके ख़याल से यह सब गप है
मात्र किंवदन्ती।
रक्तपायी वर्ग से नाभिनाल-बद्ध ये सब लोग
नपुंसक भोग-शिरा-जालों में उलझे।
प्रश्न की उथली-सी पहचान
राह से अनजान
वाक् रुदन्ती।
चढ़ गया उर पर कहीं कोई निर्दयी,
कहीं आग लग गई, कहीं गोली चल गई।
भव्याकार भवनों के विवरों में छिप गये
समाचारपत्रों के पतियों के मुख स्थल।
गढ़े जाते संवाद,
गढ़ी जाती समीक्षा,
गढ़ी जाती टिप्पणी जन-मन-उर-शूर।
बौद्धिक वर्ग है क्रीतदास,
किराये के विचारों का उद्भास।
बड़े-बड़े चेहरों पर स्याहियाँ पुत गयीं।
नपुंसक श्रद्धा
सड़क के नीचे की गटर में छिप गयी,
कहीं आग लग गयी, कहीं गोली चल गयी।
धुएँ के ज़हरीले मेघों के नीचे ही हर बार
द्रुत निज-विश्लेष-गतियाँ,
एक स्पिलट सेकेण्ड में शत साक्षात्कार।
टूटते हैं धोखों से भरे हुए सपने।
रक्त में बहती हैं शान की किरनें
विश्व की मूर्ति में आत्मा ही ढल गयी,
कहीं आग लग गयी, कहीं गोली चल गयी।

राह के पत्थर-ढोकों के अन्दर
पहाड़ों के झरने
तड़पने लग गये।
मिट्टी के लोंदे के भीतर
भक्ति की अग्नि का उद्रेक
भड़कने लग गया।
धूल के कण में
अनहद नाद का कम्पन
ख़तरनाक !!
मकानों के छत से
गाडर कूद पड़े धम से।
घूम उठे खम्भे
भयानक वेग से चल पड़े हवा में।
दादा का सोंटा भी करता दाँव-पेंच
नाचता है हवा में
गगन में नाच रही कक्का की लाठी।
यहाँ तक कि बच्चे की पेंपें भी उड़तीं,
तेज़ी से लहराती घूमती हैं हवा में
सलेट पट्टी।
एक-एक वस्तु या एक-एक प्राणाग्नि-बम है,
ये परमास्त्र हैं, प्रक्षेपास्त्र हैं, यम हैं।
शून्याकाश में से होते हुए वे
अरे, अरि पर ही टूट पड़े अनिवार।
यह कथा नहीं है, यह सब सच है, भई !!
कहीं आग लग गयी, कहीं गोली चल गयी !!

किसी एक बलवान् तन-श्याम लुहार ने बनाया
कण्डों का वर्तुल ज्वलन्त मण्डल।
स्वर्णिम कमलों की पाँखुरी-जैसी ही
ज्वालाएँ उठती हैं उससे,
और उस गोल-गोल ज्वलन्त रेखा में रक्खा
लोहे का चक्का
चिनगियाँ स्वर्णिम नीली व लाल
फूलों-सी खिलतीं।कुछ बलवान् जन साँवले मुख के
चढ़ा रहे लकड़ी के चक्के पर जबरन
लाल-लाल लोहे की गोल-गोल पट्टी
घन मार घन मार,
उसी प्रकार अब
आत्मा के चक्के पर चढ़ाया जा रहा
संकल्प शक्ति के लोहे का मज़बूत
ज्वलन्त टायर !!
अब युग बदल गया है वाक़ई,
कहीं आग लग गयी, कहीं गोली चल गयी।

गेरुआ मौसम उड़ते हैं अंगार,
जंगल जल रहे ज़िन्दगी के अब
जिनके कि ज्वलन्त-प्रकाशित भीषण
फूलों में बहतीं वेदना नदियाँ
जिनके कि जल में
सचेत होकर सैकड़ों सदियाँ, ज्वलन्त अपने
बिम्ब फेंकतीं‍‍ !!
वेदना नदियाँ
जिनमें कि डूबे हैं युगानुयुग से
मानो कि आँसू
पिताओं की चिन्ता का उद्विग्न रंग भी,
विवेक-पीड़ा की गहराई बेचैन,
डूबा है जिनमें श्रमिक का सन्ताप।
वह जल पीकर
मेरे युवकों में होता जाता व्यक्तित्वान्तर,
विभिन्न क्षेत्रों में कई तरह से करते हैं संगर,
मानो कि ज्वाला-पँखरियों से घिरे हुए वे सब
अग्नि के शत-दल-कोष में बैठे !!
द्रुत-वेग बहती हैं शक्तियाँ निश्चयी।
कहीं आग लग गयी, कहीं गोली चल गयी।
x x x
एकाएक फिर स्वप्न भंग
बिखर गये चित्र कि मैं फिर अकेला।
मस्तिष्क हृदय में छेद पड़ गये हैं।
पर उन दुखते हुए रन्ध्रों में गहरा
प्रदीप्त ज्योति का रस बस गया है।
मैं उन सपनों का खोजता हूँ आशय,
अर्थों की वेदना घिरती है मन में।
अजीब झमेला।
घूमता है मन उन अर्थों के घावों के आस-पास
आत्मा में चमकीली प्यास भर गयी है।
जग भर दीखती हैं सुनहली तस्वीरें मुझको
मानो कि कल रात किसी अनपेक्षित क्षण में ही सहसा
प्रेम कर लिया हो
जीवन भर के लिए !!
मानो कि उस क्षण
अतिशय मृदु किन्ही बाँहों ने आकर
कस लिया था इस भाँति कि मुझको
उस स्वप्न-स्पर्श की, चुम्बन की याद आ रही है,
याद आ रही है !!
अज्ञात प्रणयिनी कौन थी, कौन थी?

कमरे में सुबह की धूप आ गयी है,
गैलरी में फैला है सुनहला रवि छोर
क्या कोई प्रेमिका सचमुच मिलेगी?
हाय ! यह वेदना स्नेह की गहरी
जाग गयी क्यों कर?

सब ओर विद्युत्तरंगीय हलचल
चुम्बकीय आकर्षण।
प्रत्येक वस्तु का निज-निज आलोक,
मानो कि अलग-अलग फूलों के रंगीन
अलग-अलग वातावरण हैं बेमाप,
प्रत्येक अर्थ की छाया में अन्य अर्थ
झलकता साफ़-साफ़ !
डेस्क पर रखे हुए महान् ग्रन्थों के लेखक
मेरी इन मानसिक क्रियाओं के बन गये प्रेक्षक,
मेरे इस कमरे में आकाश उतरा,
मन यह अन्तरिक्ष-वायु में सिहरा।

उठता हूँ, जाता हूँ, गैलरी में खड़ा हूँ।
एकाएक वह व्यक्ति
आँखों के सामने
गलियों में, सड़कों पर, लोगों की भीड़ में
चला जा रहा है।
वही जन जिसे मैंने देखा था गुहा में।
धड़कता है दिल
कि पुकारने को खुलता है मुँह
कि अकस्मात्--
वह दिखा, वह दिखा
वह फिर खो गया किसी जन यूथ में...
उठी हुई बाँह यह उठी रह गयी !!

अनखोजी निज-समृद्धि का वह परम उत्कर्ष,
परम अभिव्यक्ति
मैं उसका शिष्य हूँ
वह मेरी गुरू है,
गुरू है !!
वह मेरे पास कभी बैठा ही नहीं था,
वह मेरे पास कभी आया ही नहीं था,
तिलस्मी खोह में देखा था एक बार,
आख़िरी बार ही।
पर, वह जगत् की गलियों में घूमता है प्रतिपल
वह फटेहाल रूप।
तडित्तरंगीय वही गतिमयता,
अत्यन्त उद्विग्न ज्ञान-तनाव वह
सकर्मक प्रेम की वह अतिशयता
वही फटेहाल रूप !!
परम अभिव्यक्ति
लगातार घूमती है जग में
पता नहीं जाने कहाँ, जाने कहाँ
वह है।
इसीलिए मैं हर गली में
और हर सड़क पर
झाँक-झाँक देखता हूँ हर एक चेहरा,
प्रत्येक गतिविधि
प्रत्येक चरित्र,
व हर एक आत्मा का इतिहास,
हर एक देश व राजनैतिक परिस्थिति
प्रत्येक मानवीय स्वानुभूत आदर्श
विवेक-प्रक्रिया, क्रियागत परिणति !!
खोजता हूँ पठार...पहाड़...समुन्दर
जहाँ मिल सके मुझे
मेरी वह खोयी हुई
परम अभिव्यक्ति अनिवार
आत्म-सम्भवा।