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अइले गरमी के हो महीनवाँ / महेन्द्र मिश्र

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अइले गरमी के हो महीनवाँ साइत सोच द हो बभनवाँ
कि कहिया मिलनवाँ होइहे ना।
लेके डोलिया चार कहँरवा कि कहिया सजनवाँ अइहें ना।
संगहीं के सखिया के भइलें गवनवाँ से हो भइली लरकोर।
उनका गोदी के देखि के ललनवाँ फाटे करेजवा मोर।
कि कहिया ललनवाँ अइहें ना।
सजधज के सोरहो सिंगार बनवली पहिरल लहँगा पटोर।
बाट जोहत मोर नयना पिरइलें फाटे करेजवा मोर।
कि कहिया ललनवाँ अइहें ना।
अइहें सजनवाँ करे गवनवाँ मची नगर में सोर।
काँच-बाँस के डोली बना के चले विदेसवा ओर।
कि जहिया सुदिनवाँ होइहें ना।
लेके गवनवाँ चले सजनवाँ टप-टप टपके लोर।
कहे महेन्दर सुन रे सजनी छुटल नइहरवा तोर।
कि फेर ना अवनवाँ होइहें ना।
कि अपना बाबा के हो अँगनवाँ
फेरना अवनवाँ होइहें ना।
फेरना मिलनवाँ होइहें ना।