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अकुलाहट / ‘मिशल’ सुल्तानपुरी

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जून का दिन, दोपहर और तपता नभ
आँखें सूरज की
नज़रों में लेकर
हजारों ‘नमरूदी’ कुंभीपाकों की लपटें
पग-पग पर दहकाती ज़हन्नुम
हमारे लिए

थका-हारा राही
कँवल चेहरा तमसाया
सावन की क्षीण-जर्जर लता जैसी काया
पसीने से तर माथा
पिघला मक्खन का ढेला ज्यों

वह छाँव में बैठा
सोचा मैंने
नींद की परी ऐसे ही राजकुमारों का
मन मचलाती मोह लेती है
पहुँचा जो झपटमारों की ऐसी बस्ती मं
झपकी लगते ही छीन लेंगे हाथ-पैर
फिर लाए कहाँ से बेचारा बैसाखी
देकर ज़रा-सा सहारा
बदले में माँगेंगे गुर्दा
जाएगा याचना लेकर पुतलियाँ देकर
बोलत भर-भर ख़ून पिलाना होगा ग़वाहों को
तभी खुलेगा पट न्याय का
फिर जब दिखेगा वहाँ मैदान में
टूट पड़ेंगी चीलें और गिद्ध उस पर
नोच-नोच लेंगे अंग-अंग
बचेगा बस हड्डियों का ढाँचा
इस अंधेर नगरी में
जो गिरा उसी पर टूट पड़े
नरभक्षी कौवे
ऊपर से ताक में है आकाश

कि चूस लूँ खून इसका
नीचे खुली ज़मीन भुक्खाई
पेड़-पौधे सभी बने यमदूतंच