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अकेला ठूँठ / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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मैं अकेला ठूँठ
जंगल का
कोई पाखी
क्यों भला
आ पाएगा
पात झरे सब
डालियाँ सूखीं
छाया भी है दूर
केवल धूप बाकी
तन जलता
मन दहके
एक तू है
जो धूप में
तमिस्रा में
पास आकर
हर पल महके
झेलकर
इस क्रूर जग के
पत्थरो की चोट
घायल तन -मन
तुम भला
किसको दिखाते
घुप्प अँधेरों में
आँसू पोंछ आते
मैं रहूँ खुश
इसलिए मुस्कुराते।