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अकेले की नाव- 5 / शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव

मित्र !
       इस यात्रा अंतर्यात्रा के दौरान
       मैं एक तटहीन तट से आ लगा हूँ
       बहुत से अन्वेषी

       किसी संकल्प की प्रेरणा से
       सागर की छाती पर तिरते तिरते
       धरती के किसी ठोसपन से
       लगते रहे
       पर मैं आज जहाँ आ लगा हूँ
       वहाँ किसी ठोसपन का अस्तित्व नहीं
       चारों तरफ बस तरल ही तरल है
       मैं स्वयं भी
       एक तरलता का एक हिस्सा-सा
       हो रहा हूँ.
                  
       पर मेरे बोध में
       पृथकता का एहसास अभी भी है
       मुझे साफ नगता है
       यह कोई तटहीन तट है
       पर मेरे तईं यह भी स्पष्ट है कि मैं
       किसी नदी का द्वीप नहीं हूँ.

       थोड़ी देर के लिए
       मुझे दिग्भ्रम-सा हो गया है
       मैं तुम तक पहुँचूँगा या नहीं
       संदेह के अंकुर उग आए हैं
       मेरे मन में
       थोड़ा ठिठक भी गया हूँ मैं
       पर इस अभियान से विरत
       मुझे नहीं होना है.

       तुम्हारी दिशा की टोह में

       प्रकृति की अंतर्प्रवाही तरंगों को
       मै अपना स्पंदन दे रहा हूँ
       इन तरंगों के कणों को
       मैं अपनी अंतराभिव्यक्ति का
       अंकन दे रहा हूँ
       ये तुम तक पहुँचेंगीं अवश्य
       इनमें बल होगा
       तो तुम्हें आंदोलित भी करेंगीं
       फिर तुम्हारे बिंदु बिंदु संकेतों पर
       मैं परिचालित हो उठूँगा.
       यों इन बिंदु-संकेतों के अंतरान्वेषण में
       मैं प्रतिपल प्रयत्नशील हूँ
       क्योंकि मित्र !
       मेरे पोरों के आंदोलन
       आकंठ करुणा से आप्लावित होकर
       मैं यहाँ ठिठका हूँ अवश्य
       पर किंकर्तव्यविमूढ़ नहीं हूँ
       न ही तुम्हारे संकेतों की प्रतीक्षा में
       मुझे यहॉ रुकना है
       मेरे स्पंदन
       प्रकृति के पोर पोर में अनुबद्ध
       तुम्हारे संकेतों का सान्निध्य पाने को
       निरंतर प्रयत्नशील हैं.