भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अकेले की नाव- 6 / शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मित्र !
       मेरी भाव`स्थ्तियों ने
       अपने विवेक का दीया लिए

       तुम तक जाने की राह ढूँढ़ ली है.

       इस क्षण
       मुझे अपने गंतव्य की धॅुधली सी रेखा
       दिखने लगी है
       तुम्हारे आमंत्रणों ने
       मेरे पोरों में जो जागृति भर रखी है
       उसमें मुझे
       आत्माभिमुख होने का संकेत मिला
       तुम तक पहुँचने की उत्कंठा में
       मैं अपने होने में ही
       धँसता चला गया.
                    
       पर आश्चर्य
       यहाँ से भी एक राह तुम तक जाती है.

       पर मेरे मित्र !
       जिस भावस्तर में
       इस क्षण मेरी गति हो रही है
       तुम मेरे गंतव्य प्रतीत नहीं होते
       न ही तुम मेरे अर्थ लगते हो
       मैं अपने आप को तिलांजलि देकर
       भक्ति के आबद्धनों में
       समर्पण के लिए उद्यत भी नहीं हूँ
       वरन अपना गंतव्य,
       अपना अर्थ पाने की चाह में
       जितनी भी देशनाएँ
       आज हवा में तिरती पाता हूँ

       मेरे तईं इनमें सबसे अधिक महत्वपूर्ण
       तुम्हारी देशनाएँ हैं
       मैं चाहूँ या न चाहूँ
       ये ठोंक ठोंक कर
       मेरे केंद्र तक को हिला देती हैं
       मेरे अस्तित्व में
       नदी का प्रवाह घोल देती हैं
       प्रकृति की लय से संवलित
       और मेरे आपूरित पलों से उद्वलित.

       मैं इस सदी के अंतिम दशक में
       अपने मध्याह्न की साँसें लेता
       एक नए मनुष्य के जन्म की
       आहट पा रहा हूँ
       सदी की उत्त्प्त घड़ियों में
       इसके स्वाभाविक प्रसव के लिए
       तुम्हारी देशनाओं में
       संतुलन की त्वरा है
       उच्छल जीवन के उद्भव हेतु
       मुक्त गगन का आह्वान है
       मैं अपने अंतर की राह
       तुम्हारे आह्वान को पकड़कर
       तुम तक पहॅुचने ही वाला हूँ
       मेरे आने की धमक तो
       तुम तक पहॅुच ही चुकी होगी.