भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अकेले की नाव- 8 / शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मित्र !
     तुम तक पहुँचने की उत्कंठा
     वस्तुतः भौगोलिक दूरी तय कर
     श्रद्धाभिभूत
     तुम्हें आँख भर देख लेने की
     उत्कंठा नहीं थी
     न ही दर्शन की सामयिक प्रकृति से
     मैं अनुप्राणित था
     अपितु मैं तो तुम्हारे चिदस्पर्श को
     अभ्यंतर की अनुभूति बनाने की
     आकांक्षा से अनुप्रेरित था.
     तुम्हारी वाणी में आकर्षण है
     तुम्हारे शब्दों में कविता है
     और मुझमें काव्यविवेक हो या न हो
    
     भावों के हुलास अवश्य थे
     संवेदना भरपूर थी
     तुम्हारे निजत्व के निकट से
     बहती सरिता में
     मैं अपनी संवेदना की धरोहर पाता था.

     तुम्हारी तरफ जाने के जिए
     न मालूम कितनी बार मेरे कदम उठे
     पर मेरे अंदर के किसी अदृष्ट ने
     मेरी श्रद्धा को टोका
     और टोकता रहा
     मेरे कदम रुकते रहे
     तुम्हारे सदेह साक्षात के लिए
     मैं नहीं आ सका
     हालॉकि तुम्हारी अनुभूति को
     अपनी बनाने के क्रम में
     अपने दोस्तों द्वारा
     ‘रजनीश’ उद्वोधन से
     व्यंगित किया जाता रहा.

     इस नामकरण के व्यंग्य से
     मैं कभी अभिभूत नहीं हुआ
     न ही कभी उद्वेलित
     यहॉ तक कि तमाम प्रतिटिप्पणियॉ भी
     मुझे आक्रुद्ध नहीं कर सकीं
     हॉ ये घटनाऍ
     मुझे अपने ही विवेक के केंद्र पर
     आरूढ़ होने के लिए

     संबल अवश्य साबित होती रहीं.

     और एक दिन
     मुझे पता भी न चला
     और मेरे विवेक ने मुझे धक्का देकर
     मेरी नौका को
     तुम्हारी तरफ ठेल दिया.

     बीच धारा में मुझे पता चला
     अपनी नौका पर मैं अकेला हूँ
     हालॉकि मेरी दृष्टि में
     तुम प्रतिपल संवेदित थे
     मेरी सारी खिड़कियाँ खुलीं थीं.
                           
     हवा के ताजे झोंके
     बाजवक्त मुझे सिहरा जाते थे.

       इस पूरी यात्रा के दौरान
       अपने विवेक और समझ को
       मैंने कभी नहीं छोड़ा
       तुम दृष्ट अवश्य थे, मेरी अंतर्दृष्टि
       सदा इनसे परिचालित रही
       और कुछ इसी का फल है
       कि आज तुम्हारे द्वार पर
       मैं मोहग्रस्त चिंतन के वशीभूत नहीं हूँ.
       आज मैं इस बोध से भींग रहा हूँ
       कि प्रकृति की एक ही कोख ने
       तुम्हें और मुझे जना है

       पर तुम्हारी स्नायुओं में
       प्रकृति छलक रही है
       पर मेरी स्नायुओं में
       अभी यह घुली घुली ही है
       कल छलकेगी या परसों
पर एक दिन छलकेगी अवश्य.