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अकेले के पल- 5 / शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव

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हे अग्नि-कवि !
       तुम मेरे लिए
       जो अग्नि-कविता लाए हो
       उसे पाने की बड़ी उत्कंठा है
       मेरे मन में
       किंतु उसके स्वीकरण की
       जितनी तैयारी है
       मेरी चिद्रचना में
       इसके प्रति संचेतित भी हूँ.

       इस तैयारी की एक धॅुधली सी
       उभरती मिटती प्रतीति
       उस कविता की ओर
       मुझे लपकाती है
       पर पल प्रतिपल
       अंतस्तल से उठती कोई टोक
       मेरे उठते कदम को
       बाधित किए दे रही है.

       तुम्हारी अग्नि-कविता
       अकम्पित
       शून्य तरंगाघातों की तरह
       मेरे गिर्द मौन मुखरित हैं
       यह एहसास मुझे है
       किंतु जान पड़ता है
       प्रकृति का संतुलन
       मेरे अनुकूल नहीं है जिससे
       तुम्हारी कविता मेरी नहीं हो पाती.

       कहीं ऐसा तो नहीं
       कि तुम्हारी कविता में
       जिस रहस्य-खोज का अनुगुंथन है
       वह प्रकृति के संतुलन-रहस्य का
       जागरित आत्मीकरण ही है
       जिससे छिन्न मेरी भटकन के
       उद्बोध के लिए
       अपने भाविक संवेदन में
       अग्निल अंतरर्थों को भरा है तुमने
       युगीन संवेदनाओं के अनुकूल
       युगीन संदर्भों में.

       तब तो
       तुम्हारी अग्नि-कविता के
       पाने की उत्कंठा
       यहीं से यहीं तक के बीच का
       अर्थवान आंदोलन होना चाहिए
       मेरे अंतरावेगों की टोका टोकी में

       कहीं मेरा यही अंतरर्थ तो
       उन्मीलित नहीं है.

       मित्र !
       अब तो तुम्हारे सिंहद्वार से
       दस्तकें न देकर
       प्रकृति के अचेतन विस्तार में
       अपने अंतरर्थ को ही क्यों न ढूँढ़ लॅू
       मुझे लगता है
       तुम्हारी निकटता से
       संस्पर्शित वायु-कणों व
       आकाश के परमाणुओं में
       यह ढूँढ़ सरल होगी.

       यहाँ एक संधि बनती है
       जहाँ सार असार के द्वंद्व में
       मेरी प्रयोगधर्मिता
       जागरण का प्रयोग कर सकेगी
       उसके संघातों को झेल सकेगी.