भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अकेले होने का ख़ौफ / जुबैर रिज़वी

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता २ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 08:28, 14 अगस्त 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जुबैर रिज़वी }} {{KKCatNazm}} <poem> हमें ये रं...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हमें ये रंज था
जब भी मिले
चारों तरफ़ चेहरे शनासा थे
हुजूम-ए-रह-गुज़र बाहों में बाहें डाल कर चलने नहीं देता
कहीं जाएँ
तआकुब करते साए घेर लेते हैं
हमें ये रंज था
चारों तरफ़ की रौशनी बुझ क्यूँ नहीं जाती
अँधेरा क्यूँ नहीं होता
अकेले क्यूँ नहीं होते
हमें ये रंज था
लेकिन ये कैसी दूरिया
तारीक सन्नाटे की इस साअत में
अपने दरमियाँ फिर से चली आई