अक्सर अरमान जागते हैं... चमकते हैं...
बिखर जाते हैं...
ऐसा ही एक जागा हुआ अरमान...
इधर सर उठाए है...
बिखर जाने को हरगिज़ तैयार नहीं...
किसी सूरत भी नहीं...
उस जागते अरमान का ख़्वाब भी क्या...
तुम्हारे साथ कभी यूँ
ख़ामोश बैठूँ... तब तक
जब तक ख़ामोशी ख़ुद चीख़ न पड़े...
आवाज़ में तब्दील होने को
एक दूजे में तहलील होने को !