भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अखने के बुतरू / सिलसिला / रणजीत दुधु

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:56, 27 जून 2019 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पढ़े हे ने लिखे हे, खा हे तिरंगा,
अखने के बुतरूवन हो गेल लफंगा।

मुँह में हे पान आउ हाथ में तगमा
बड़गर हे जुल्फी आउ आँख में चश्मा
देह में जान नय किरीज पड़ल अंगा,
पढ़े हे ने लिखे हे खा हे तिरंगा।

अपना से बड़ पर रोब चलावे,
मास्टरे सबके ऊ आँख देखाये
कालर में रूमाल रखे सतरंगा,
अखने के बुतरूवन हो गेल लफंगा

पढ़ेले जा हे साथे लेके पिसतउल
पढ़े के बदले खेले किरकेट फुटबउल,
रस्ता चलते लुटा गेल भिखमंगा,
पढ़े हे ने लिखे हे खा हे तिरंगा।

दम लगवे गाँजा के पीये सिकरेट,
अपना के समझे हे बड़ी अपटुडेट
घर में खरची नय बने हे राजा दरभंगा
पढ़े हे ने लिखे हे खा हे तिरंगा।