भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अगर-मगर / निरंकार देव सेवक

Kavita Kosh से
Anupama Pathak (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:20, 3 अक्टूबर 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=निरंकार देव सेवक |अनुवादक= |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अगर मगर दो भाई थे,
लड़ते खूब लड़ाई थे।
अगर मगर से छोटा था,
मगर अगर से खोटा था।
अगर मगर कुछ कहता था,
मगर नहीं चुप रहता था।
बोल बीच में पड़ता था,
और अगर से लड़ता था।
अगर एक दिन झल्लाया,
गुस्से में भरकर आया।
और मगर पर टूट पड़ा,
हुई खूब गुत्थम-गुत्था।
छिड़ा महाभारत भारी,
गिरीं मेज-कुर्सी सारी।
माँ यह सुनकर घबराई,
बेलन ले बाहर आई!
दोनों के दो-दो जड़कर,
अलग दिए कर अगर-मगर।
खबरदार जो कभी लड़े,
बंद करो यह सब झगड़े।
एक ओर था अगर पड़ा,
मगर दूसरी ओर खड़ा।

-साभार: बालसखा, मई, 1946, 169