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अगर कुछ होश हम रखते तो मस्ताने हुए होते / 'सिराज' औरंगाबादी

अगर कुछ होश हम रखते तो मस्ताने हुए होते
पहुँचते जा लब-ए-साक़ी कूँ पैमाने हुए होते

अबस इन शहरियों में वक्‍त अपना हम किए ज़ाए
किसी मजनूँ की सोहबत बैठ दीवाने हुए होते

न रखता मैं यहाँ गर उल्फ़त-ए-लैला निगाहों कूँ
तो मजनूँ की तरह आलम में अफ़साने हुए होते

अगर हम आशना होते तिरी बेगाना-ख़ौफ़ी सीं
बरा-ए-मसलिहत ज़ाहिर में बेगाना हुए होते

ज़ि-बस काफ़िर अदा यूँ चलाए संग बे-रहमी
अगर सब जमा करता मैं तो बुत-ख़ाने हुए होते

न करता ज़ब्त अगर मैं गिर्या-ए-बे-इख़्तियारी कूँ
गुज़रता जिस तरफ़ ये पूर वीराने हुए होते

नज़र चश्‍म-ए-ख़रीदारी सीं करता दिल-बर नादाँ
अगर क़तरे मिरे आँसू के दुर दाने हुए होते

मोहब्बत के नशे हैं ख़ास इंसाँ वास्ते वर्ना
फ़रिश्‍ते ये शराबें पी के मस्ताने हुए होते

एवज़ अपने गरेबाँ के किसी की ज़ुल्फ हात आती
हमारे हात के पंजे मगर शाने हुए होते

तिरी शमशीर-ए-अब्र सीं हुए सन्मुख व इल्ला न
अजल की तेग़ सीं ज्यूँ आरा दंदाने हुए होते

मज़ा जो आशिक़ी में है सो माशूक़ी में हरगिज़ नहीं
‘सिराज’ अब हो चुके अफ़सोस परवाने हुए होते