भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अगर हम अपने दिल को / कुँअर बेचैन
Kavita Kosh से
Bhawnak2002 (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 20:45, 27 जनवरी 2007 का अवतरण
रचनाकार: कुँवर बेचैन
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*
चित्र:Birdi.gif
130px
अगर हम अपने दिल को अपना इक चाकर बना लेते
तो अपनी ज़िदंगी को और भी बेहतर बना लेते
ये काग़ज़ पर बनी चिड़िया भले ही उड़ नही पाती
मगर तुम कुछ तो उसके बाज़ुओं में पर बना लेते
अलग रहते हुए भी सबसे इतना दूर क्यों होते
अगर दिल में उठी दीवार में हम दर बना लेते
हमारा दिल जो नाज़ुक फूल था सबने मसल डाला
ज़माना कह रहा है दिल को हम पत्थर बना लेते
हम इतनी करके मेहनत शहर में फुटपाथ पर सोये
ये मेहनत गाँव में करते तो अपना घर बना लेते
'कुँअर' कुछ लोग हैं जो अपने धड़ पर सर नहीं रखते
अगर झुकना नहीं होता तो वो भी सर बना लेते
-- यह ग़ज़ल Dr.Bhawna Kunwar द्वारा कविता कोश में डाली गई है।