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अगली बार / स्वाति मेलकानी

अगली बार धरती नहीं
आकाश बनूँगी।
दूर से ही देखूँगी तुम्हें
देखूँगी कैसे ठिठुरते हो ठंड में
या गर्मी में
हाँफते से फड़कते हो।
स्वयं में पेड़ उगाकर
जो ना दूँ छांव
तो कैसे झुलसते हो
तेज दुपहरी धूप में।...
बारिशों में भीगते देखना है तुम्हें
देखूँ कैसे दिखते हो
जब छोटी-छोटी गीली बूँदें
तुम्हें छू कर नीचे गिरेंगी।
नहीं,
मैं नहीं समेटूँगी उन्हें
और न भीगने दूँगी अपना दामन
मैं तो बस देखूँगी दूर से
अहसास करूँगी
अपने अलग होने का
नहीं समाऊँगी स्वयं को तुममें
न तुम चल पाओगे
सख्त कदमों से मेरे ऊपर
और न मैं उदास होकर
तुम्हारे ठहरने की
अपेक्षा करूँगी।
अगली बार धरती नहीं
आकाश बनूँगी।