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अग्नि-तेज़ / रंजना जायसवाल

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आज सभा मध्य
नग्न की जा रही है मेरी देह
जो अग्नि से पैदा हुई
और ये मेरे पति हैं
पाँच-पाँच पुरुष
जिनकी संख्याएँ गिनाकर
रहस्य से मुस्कुराता है संसार
निबाहती रही जिन्हें पूरे नेम-धरम से मैं
बैठे हैं सिर नीचा कर
हार गये हैं मुझे वस्तु की तरह
हाँ गोपाल, बिना मुझसे पूछे
और ये बैठे हैं श्वसुर-गृह के
बड़े-बूढ़े
लाचार-बँधे अपने भारी भरकम धर्म-शास्त्रों से
घसीटी जा रही हूँ
मैं इनके बीच
तुम्हीं कहो, आज के बाद
कौन स्त्री मानेगी
पति को रक्षक
और बड़े-बूढ़ों को संरक्षक
मेरा अपराध कि कह दिया
अन्धे को अन्धा या फिर कि नहीं कर सकी विरोध
बँटते हुए प्रसाद की तरह
या फिर यह कि मेरा रूप-यौवन
अग्नि-तेज से दीप्त है
तो क्या स्त्री का अग्नि-गुण
नहीं सह पायेगी दुनिया
किसी भी युग में।