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अच्छा था अगर ज़ख़्म न भरते कोई दिन और / फ़राज़

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अच्छा था अगर ज़ख़्म<ref>घाव</ref>न भरते कोई दिन और
इस कू-ए- मलामत<ref>निंदा के नगर</ref>में गुज़रते कोई दिन और

रातों को तेरी याद के ख़ुर्शीद <ref>सूर्य</ref>उभरते
आँखों में सितारे-से उतरते कोई दिन और

हमने तुझे देखा तो किसी को भी न देखा
ऐ काश! तिरे बाद गुज़रते कोई दिन और

राहत<ref> आराम,चैन</ref>थी बहुत रंज<ref>दु:ख</ref>में हम ग़म-तलबों <ref>दु:ख चाहने वालों </ref>को
तुम और बिगड़ते तो सँवरते कोई दिन और

गो<ref>यद्यपि</ref>तर्के -तआल्लुक़<ref>संबंध विच्छेद</ref>था मगर जाँ <ref>प्राणों</ref>प’ बनी थी
मरते जो तुझे याद न करते कोई दिन और

उस शहरे-तमन्ना <ref>इच्छाओं का नगर</ref>से ‘फ़राज़’ आए ही क्यों थे
ये हाल अगर था तो ठहरते कोई दिन और

शब्दार्थ
<references/>