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अच्छा था बीत जातीं गर कुछ रातें और भी / कबीर शुक्ला

अच्छा था बीत जातीं गर कुछ रातें और भी।
बीत जाता दौर-ए-अलम बरसातें और भी।
 
शामें-हिज्राँ शबे-फ़िराक के अलावा भी मेरे,
ग़मे-कल्ब भी कई हैं कई हैं बातें और भी।
 
माभम अज़ीयत अश्क बनके छलक रहे हैं,
रुलाती हैं माज़ी बेरब्त मुलाकातें और भी।
 
बेनाम-ओ-नमूद की मुहब्बत मेरी हिरासा है,
सताती हिस्से-लताफ़त की सौगातें और भी।
 
चंद शेर-ओ-शायरी-ओ-अफ़कार खातिर,
दे दो स्याही भरी हुई कुछ दवातें और भी।