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अच्छी बातें लग जाती हैं यार बुरी / दीपक शर्मा 'दीप'

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अच्छी बातें लग जाती हैं यार बुरी
यानि-यानि हाँ-हाँ जी सरकार बुरी

इसे सँभाले रखना इतना आसां है?
जब-तब नीचे आती है 'दस्तार' बुरी

माना उलझन ख़ून जलाती है बेशक़
लेकिन यों भी नहीं मियाँ बेकार-बुरी

लम्हे-भर में बरसों का ख़ूँ होता है
कान बुरा है या कि फिर दीवार बुरी?

कश्ती-लंगर-दरिया-मौजें और भँवर
सब अच्छे हैं 'दीप' मगर पतवार बुरी

 

 

23.

 

 

 

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उस गली से जब गुज़रते हम चले जाते हैं दोस्त

पूछ मत कितना सिसकते और पछताते हैं दोस्त!



ज़िन्दगी को खा गयी है मस्लेहत बे-शक़, मगर

तुम यकीं मानो कि इससे ख़ूब-तर खाते हैं दोस्त



वक़्ते-शब घर से बुला कर के थमा कर के 'शराब'

सुब्ह को दुनिया के हो कर तंज़-फ़रमाते हैं दोस्त



सब नवाज़िश है तिरी ही के ख़लिश है दम-ब-दम

पाँव पड़ते हैं चला जा, ‘अब कसम खाते हैं दोस्त’



अब ख़ुशी मिलती नहीं है सिर्फ़ डर लगता है 'दीप'

जब अचानक आ के साँकल, पीटते जाते हैं दोस्त