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अछवानी बरनन / रसलीन

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कैसहुँ बहू अछवानी न पीवत केतो खरी ढिग सास निहोरै।
हाथ लिये चमचा झिझकै मुख लावत ओंठ औ नाक सिकौरै।
सोंठ लगी गरवैं तबहीं भरि नैनन मैं अँसुवा मुख मोरै।
एरी लखो एहिं रूप सुहावन नारिन को मन कों यह चोरै॥93॥