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अजनबी लगती है कभी पहचानी लगती है / पल्लवी मिश्रा

अजनबी लगती है कभी पहचानी लगती है,
ज़िन्दगी मुझको तो अधूरी-सी कहानी लगती है।

ढल जाती है उम्र तमन्नाएँ मिट नहीं पाती,
दबी हुई इच्छाओं की कुर्बानी लगती है।

सुबह का सूरज है बच्चे की किलकारी-सा
और दुपहरी शाम तलक जवानी लगती है।

रात अँधेरी लेकर आता है संदेश बुढ़ापे का
आगे की हर राह मगर अनजानी लगती है।

खाली हाथ आए हैं और जाना भी है खाली हाथ,
फिर दौलत के पीछे क्यूँ दुनिया दीवानी लगती है?

घड़ी-दो-घड़ी की ज़िन्दगी है, बाँट सको तो बाँटो प्यार
ईर्ष्या, द्वेष, कलह की बातें, मुझको तो बेमानी लगती हैं।