भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अजीब अन्धेरा / जय गोस्वामी

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:03, 2 जनवरी 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKRachna |रचनाकार=जय गोस्वामी |संग्रह= }} {{KKCatKavita‎}} <Poem> वे इस बंगाल में ले आए …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वे इस बंगाल में ले आए हैं आज
एक अजीब अन्धेरा
जिन्होंने कहा था 'अन्धेरे को दूर भगाएंगे हम`
वही आज सारी रोशनी का लोप कर रहे हैं,
अन्धेरे के राजाओं के हाथ
सुपुर्द कर रहे हैं ज़मीन और चेतना-
'तेभागा` की स्मृतियों को दफ़न कर रहे हैं
कह रहे हैं 'जाओ, पूंजी के आगोश में जाओ`

नंदिनी अपने दोनों हाथों से
हटा रही है अन्धेरा, पुकारती-'रंजन कहाँ हो तुम!`
जितने रंजन हैं सभी घुसपैठिए, यह मान कर
जारी हुआ है वारंट
फिर भी वे आ खड़े हो रहे हैं
किसानों के कंधें से कंधा मिला कर
'तेभागा` के कंधें से कंधा मिला कर
उनकी प्रतिध्वनि जगा रही है संकल्प के पर्वत-सी मानसिकता,
विरोध चारों ओर, कोतवाल त्रस्त हैं

युद्ध के मैदान में रेखाएँ खींची जा चुकी हैं
तय कर लो तुम किधर जाओगे,
क्या तुम भी क़दम बढ़ाओगे व्यक्ति स्वार्थ की चहारदीवारी की ओर
जैसे पूंजी की चाकरी करनेवाले 'वाम` ने बढ़ाए हैं
या रहोगे मनुष्य के साथ
विभिन्न रंगों में रंगे सेवादासों ने
षड़यंत्रों के जो जाल बुने हैं
उन्हें नष्ट करते हुए
नये दिवस का, नये समाज का स्वप्न
देखना क्या नहीं चाहते तुम?

   
बांग्ला से अनुवाद : विश्वजीत सेन