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"अज अनादि अविगत अलख / हनुमानप्रसाद पोद्दार" के अवतरणों में अंतर

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(राग भैरवी-ताल कहरवा)
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(राग माँड-ताल कहरवा)
  
जय जय जय दाता शिव शंकर।  आशुतोष सुखकर अभयंकर॥
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अज अनादि अविगत अलख, अकल अतुल अविकार।
माथ सुधाकर सुरधुनि-धारे। हाथ त्रिशूल त्रिशूल निवारे॥
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  बंदौं शिव-पद-युग-कमल अमल अतीव उदार॥-१॥
पाप-ताप सब शापसँहारक।  भुवन-भक्त-भव-भीति-विदारक॥
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जयति त्रिलोचन! जय त्रिपुरारी।  कुञ्मति-काम-हर मंगलकारी॥
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  आर्तिहरण सुखकरण शुभ भुक्ति-मुक्ति-दातार।
जय हिमान्ग हिमगिरिके वासी। हिमगिरिसुता-सहित सुखरासी॥
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  करो अनुग्रह दीन लखि अपनो विरद विचार॥-२॥
कालकूट कर घूँट उतारा।  नील-कंञ्ठ हर हर ओंकारा॥
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मौलि चन्द्र-चिह्नित विशाल वर। जटा-जूट सिर जटिल जाल धर॥
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  पर्‌यो पतित भवकूप महँ सहज नरक-‌आगार।
गर्वित गन्ग तरंग तापहर।  भाल त्रिपुण्डित मुण्डमाल गर॥
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  सहज सुहृद पावन-पतित, सहजहि लेहु उबार॥-३॥
भस्म विभूति भुजग आभूषण। विजया आक धतूर समर्पण॥
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कटि कराल व्यालित बाघंबर।  कर डमरू डिमडिम प्रलयंकर॥
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  पलक-पलक आशा भर्‌यो, रह्यो सुबाट निहार।
नमः शिवाय जप‌उँ बहु बारा।  शभु ! काज सब करहु हमारा॥
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  ढरो तुरंत स्वभाववश, नेक करो अबार॥-४॥
जय गजतुंड-जनक त्रिपुरारी।  विघन-विदारक भव-भय-हारी॥
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समरथ सतत समाधि लगाये। योग-निरत माया विलगाये॥
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आगम निगम पन्थ सब हारे।  अन्त गहे शिव ! चरण तुहारे॥
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शिव सुमिरत नासत तन-पीरा।  शिव सुमिरत भाजत भव-भीरा॥
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शिव सुमिरत अघ ओघ अपारा।  काम-चाप सम जरत न बारा॥
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शिव सुमिरत रिन-रोग नसा‌ई। शिव सुमिरत बल-बुधि विकसा‌ई॥
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शिव सुमिरत रिधि-सिधि नियरा‌ई।  शिव सुमिरत रिपु करत मिता‌ई॥
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दैहिक दैविक भौतिक तापा।  शिव सुमिरत सपनेहुँ नहिं व्यापा॥
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बेल पत्र, अक्षत, पय-धारा।  धूप-धतूर तुमहिं अति प्यारा॥
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नन्दी गण शिव समुख राजे। जेहि पद परसि सकल दुख भाजे॥
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कर त्रिशूल नन्दी असवारी।  तुम त्रिभुवन-त्राता त्रिपुरारी॥
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मेटत पाप-तापकी ज्वाला।  कालकूट कर कण्ठ कराला॥
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आदि शक्ति अर्धान्ग भवानी।  जेहि जपि जगत लहत सुख-खानी॥
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हर हर कहत हरत सब पीरा।  शंभु कहत सुख लहत शरीरा॥
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शंकर कहत सकल कल्याना।  रुद्र कहत मेटत भय नाना॥
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तुम देवन महँ सब विधि पूरे।  आशुतोष, दानी अति रूञ्रे॥
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अर्चन सुगम, सुगम अति पूजा।  महादेव सम देव दूजा॥
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मन-क्रम-वचन ध्यान जो लावै।  तुरतहिं मनवाच्छित फल पावै॥
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स्नान ध्यान-‌अभिषेक तुहारा।  सब फलप्रद जानत संसारा॥
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जो विधि रची भीति-भव-बाधा।  शंभु सुमिरि सब मिटत विषादा॥
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रंक लहत निधि, सिधि लह जोगी।  पावत विभव विगत रुज रोगी॥
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‘शंभु’ नाम पतवार बना‌ई।  भव-सागर-तरनी तर जा‌ई॥
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सुनु शिव विनत विनय अब मोरी।  करहु विमल मति, जग-रति थोरी॥
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काटहु संकट-कटक विशाला।  करि ऋञ्ण-रुण्ड धरहु गल माला॥
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पाप-ताप बेधहु तिरसूला।  स्रवहु सकल सिधि मंगल-मूला॥
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जे जग-जाल विकलता-रासी।  ते छन छारि करहु सुखरासी॥
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ईति भीति ऋञ्ण रुज विनसा‌ई।  होहु दास हित शंभु सहा‌ई॥
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अन्तर अमल विवेक विचारा।  सोचहु उर सुर-सरिता धारा॥
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रचे‌उँ सकल हित शिव चालीसा।  करिहहिं कृञ्पा सुनत शिव ईसा॥
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21:24, 29 अक्टूबर 2016 के समय का अवतरण

(राग माँड-ताल कहरवा)

अज अनादि अविगत अलख, अकल अतुल अविकार।
 बंदौं शिव-पद-युग-कमल अमल अतीव उदार॥-१॥

 आर्तिहरण सुखकरण शुभ भुक्ति-मुक्ति-दातार।
 करो अनुग्रह दीन लखि अपनो विरद विचार॥-२॥

 पर्‌यो पतित भवकूप महँ सहज नरक-‌आगार।
 सहज सुहृद पावन-पतित, सहजहि लेहु उबार॥-३॥

 पलक-पलक आशा भर्‌यो, रह्यो सुबाट निहार।
 ढरो तुरंत स्वभाववश, नेक न करो अबार॥-४॥