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अति एकान्त, बिकल बैठी थी / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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अति एकान्त, बिकल बैठी थी आतुर मन कालिन्दी-कूल।
श्याम-विरह दुस्सह पीड़ासे व्यथित गयी थी सब कुछ भूल॥
’आवेंगे अब नहीं कभी, वे छोड़ गये मुझको मतिमान।
जान गये मुझको सब विधिसे हीन, मलीन, दोषकी खान॥
नहीं बाह्य सौन्दर्य तनिक भी, नहीं हृदय सुन्दरता-लेश।
अमित दोष-पूरित बाह्यस्नन्तर, कलुषित कठिन कुबुद्धि विशेष॥
इसी हेतु वे गये, किया प्रियतमने समुचित निस्संदेह।
नहीं कदापि योग्य है उनके कुत्सित अति कुरूप यह देह॥
सुख पायें वे प्राणनाथ, है अमित मुझे इसमें आनन्द।
प्रिय-वियोग-विष-ज्वाला विषम जलाती रहे मुझे स्वच्छन्द’॥
करती यों विचार थी, थी वह भाव-मुग्ध सब विधि बाला॥
मन-ही-मन जप रही निरन्तर थी वह प्रिय-सुखकी माला॥
प्रिय-सुख-स्मृतिसे एक-‌एक पल, नव-नव हृदय मोद भरता।
किंतु साथ ही प्रिय-वियोग-दावानल हृदय दाह करता
भूल गयी वह कल-कल करती बहती कालिन्दी-धारा।
कूद पड़ी, कमनीय कलेवर सलिल-निमग्र हु‌आ सारा॥
लगा, किसीने लिया गोदमें, हु‌आ सुकोमल तनका स्पर्श।
भरा सुधा-रस अङङ्ग-‌अङङ्गमें, मिटा खेद, छाया अति हर्ष॥
हर्षपूर्ण हो गया हृदय अति, रहीं बंद आँखें कुछ काल।
उठी गुदगुदी तन-मनमें, तब खुले नयन-‌अरविन्द विशाल॥
देखा बँधी हु‌ई अपनेको प्रियतमके कोमल भुज-पाश।
देखा, देख रहे अपलक प्रिय, छाया अधरोंपर मृदु हास॥
हु‌आ अमित आनन्द परस्पर, विकसे हृदय-कुसुम तत्काल।
होने लगा प्रिया-प्रियतममें रसालाप अति दिव्य रसाल॥
बोले प्रियतम-’भूल गयी तुम, आये थे हम दोनों साथ।
दोनों ही बैठे यमुना-तट लिये परस्पर कोमल हाथ॥
हु‌आ प्रेम-वैचिय तुहें तब, जागा मन वियोगका जान।
हु‌आ विमुग्ध देख मैं अनुपम दिव्य प्रेमकी दशा महान॥
कूदा मैं भी साथ तुहारे, लिया अङङ्कमें भुजा पसार।
मैंने तुमको प्रिये ! उसी क्षण, मिला दिव्य आनन्द अपार॥
रहा देखता निर्निमेष मैं प्यारी-मुख-सरोजकी ओर।
उमड़ा प्रेम-सुधा-रस-सागर, रहा कहीं भी ओर न छोर॥
हटा भाव वह पाकर मुझको, हु‌आ तुहें तब बाह्यजान।
महिमामयी! नहीं तुमको है किंचित्‌ निज महिमाका भान॥’