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अतीत के क्षण / राजेश श्रीवास्तव

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बीता बचपन आई जवानी,
अब किससे कहूँ सुना कहानी।

बचपन के दिन भी यारो क्या दिन थे, किसी के पोते हम किसी के नातिन थे,
ठाठ भी अपने निराले होते थे
बिना मचले भला हम कहाँ सोते थे
नींद मीठी-सी झपकी दे जाती थी
माँ भी आ-आकर थपकी दे जाती थी

अधसोये अधजागे से हम,
कुनमुना कह उठते थे-'नानी'।

ऐसे तमाशे भी तो खूब होते थे
किसी न किसी को हम रोज भिगोते थे
गुड्‌डे-गुड़ियों का प्यारा-सा घर था
बाबा थे, दादी थी फिर किसका डर था
नन्हा-सा संसार नन्हें खिलौने थे
पर उनके आगे सब लोग बौने थे

नीला-नीला था वह आकाश
और सपने सारे आसमानी।

नन्हें सपने थे, नन्हा-सा आकाश,
हरदम चाहा, पंछी-से उड़ते काश,
अल्हड़-सा बचपन मासूम-सी भूलें
अब भी मन है माँ के कंधों पर झूलें,
अब भी कोई अंगुली पकड़ ले जाए,
अब भी हम रूठें माँ बारंबार मनाए
अब भी पापा घर लौटें तो हम
सुनाएं दिन भर की राम कहानी।

अब न जाने किस दहलीज़ पर खड़े हैं
सिमटी हैं बाँहें और कंधे अकड़े हैं
अब कौन मचलता है, कौन सुनता है,
हर कोई बस एक जाला-सा बुनता है,
जाने किस दुर्वासा का शाप पड़ा है,
हर आदमी अपने ही में सिकुड़ा है,
शंख-सा कड़ा व्यक्तित्व लिए
घोंघे-सी सहमी जिंदगानी॥