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अतुकान्त / प्रतिभा सक्सेना

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विरति के पल
और इस अतुकान्त की लय
अंतिमाओं तक निभाऊँगी!


पंक्तियों पर पंक्ति,
हर दिन नया लेखा .
पंक्तियों की असम रेखाएँ
क्या पता कितनी खिंची आगे चली जाएँ!
रहेंगी अतुकान्त, औ' बिल्कुल अनिश्चित,
अल्प-अर्ध-विराम कैसे ले सकूँ निज के .
अवश हो उस असमतर गति में समाऊँगी


एक कविता चल रही अनुदिन,
क्या पता ये पंक्तियाँ कितना चलेंगी .
क्योंकि ये तुक हीन,
बिन मापा-तुला क्रम,
विभ्रमित व्यतिक्रम बना-सा
पंक्तियाँ इतनी विषम, बिखरी हुई
किस विधि सजाऊँगी!


रास्ता ये आखिरी क्षण तक चलेगा .
क्या पता कितना घटा कितना बढ़ेगा .
तंत्र में अपने स्वयं के हो नियोजित !
रुक गई पल भी,
अटक रह जायेगी वह पाँत,
होकर बेतुकी फिर
कथा को आगे कहाँ,
किस विधि बढ़ाऊँगी!


ओ कथानक के रचयिता, धन्य तू भी
भार सिर धर कह रहा, भागो निरंतर,
दो समानान्तर लकीरें डाल कर पगडंडियों पर
सँभलने- चलने बहकते पाँव धर धर!
चलो, बस चलते रहो अनथक निरंतर
टूटती सी बिखरती, जुड़ती, अटकती
इन पगों कें अंकनों से लिखी जाती
रहित अनुक्रम पंक्तियाँ किसको सुनाऊँगी!


एक पूर्ण-विराम तक अविराम चलना
क्योंकि अविरत सतत, गति की यात्री मैं,
छंद से उन्मुक्ति संभव कहाँ?
लय- प्रतिबंध धारे,
सिक्त अंजलि भर
इसी खारे उदधि के फेनिलों को
सौंप जाऊँगी!


आत्म के अनुवाद के,
इस अनवरत संवाद के
बहते हुये पल,
क्या पता
किन औघटों पर जा चढाऊँगी!
किन्तु इस अतुकान्त की लय
अंतिमाओं तक निभाऊँगी!