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अथक बटोही / आरती 'लोकेश'

उषाकाल में अथक बटोही,
कहाँ आज है दाना चुगना,
उत्तिष्ठ पसारे पंख गगन में,
किस पड़ाव है तुमको मुड़ना।

एक डाल विश्राम करें तो,
जैसे मुक्ता जड़े हार में,
एक धरा पर चुगते चलते,
जैसे कड़ी जुड़े तार में ।

सूझ-बूझ से मार्ग सुझाते,
कभी दूजे की राह न आते,
निरंतर अंतर पर अंबर में,
स्व परिधि सब उड़ते जाते।

गलबैंया डाल, मिलें, उड़ें जब,
प्रस्फुट नेतृत्व आदर्श वहीं,
सात समुंदर पार चले तो,
लक्षित अनुशासन न और कहीं।