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अदृश्य रंगरेज के प्रति / विमल राजस्थानी

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ओ अदृश्य ‘रंगरेज’ ! बता दे
इतने रंग कहाँ से लाया
नभ से क्षिति तक मंत्रमुग्ध-
करने वाला संसार बसाया

एक अकेले इंद्रधनुष में-
सात रंग के तार पिरोये
धरती के कण-कण में अनगिन-
छवियों वाले रंग समोये

रंगों के इस महासिंधु का-
अथ तो है, पर अंत नहीं है
जल-थल के इस रंध्र-रंध्र में-
कह दो कहाँ ‘वसन्त’ नहीं है

यह विचित्र संसार रंग का,
यह सौन्दर्य-राशि अद्भुत है
इस रहस्य की छाया तक को-
भी विज्ञान कहाँ छू पाया

फूलों की घाटी देखी है
निरखे हैं खग-कुल के डैने
तिनके दाँतों तल दबाये
हेरे हैं चित्रित मृग-छौने

हे प्रभु ! तुम कितने विराट हो
हम कितने हैं ठिगने-बौने
तुमने थमा दिये हाथों में-
ये असंख्य रंगीन खिलौने

रंग-बिरंगे शत-सहस्त्र इन-
रंगों का छवि-जाल अजब है
यह कैसी सम्मोहन-लीला,
यह कैसा अद्भुत करतब है !

लपटों तक में देखा-निरखा है
रंगों का शाश्वत जादू
कितना सुंदर रंग तुम्हारा-
होगा, कोई जान न पाया।

ओ अदृश्य ‘रँगरेज’ बता दे
इतने रंग कहाँ से लाया ?
नभ से क्षिति तक मंत्रमुग्ध
करनेवाला संसार बसाया।