भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अधूरा आदमी / अशोक कुमार

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बचपन से ही आधा-अधूरा था वह
पाठशाला की पाठों को सही ढंग से पढ नहीं पाया
और बन गया अधूरा आदमी

अपनी अधूरी भाषा में चिड़ियों से बातें करता था वह
अधूरी ज़बान में चिड़ियाघरों के लंगूरों से बदजबानी कर जाता था

नदियों के ऊपर बनी पुलिया पर
अधूरे कदम रख पाता था वह
और अधूरी पोशाक में
बस सभ्यता की एक शेष होती साख भर होता था वह।

अधूरे आदमी के सपने कभी पूरे नहीँ होते
पूरी तरह नहीं जानता था वह
और जीता था अपनी अधूरी जिन्दगी
पूरे मनोवेग से।

अपनी पूरी नींद से
अकबका कर जागता था आदमी
जब खूबसूरत इच्छायें
पूरे सपने में अधूरी बन
हताशाओं के पार चली जाती थीं

अधूरे ख्वाब को जागी आँखों में लिये जागता था अधूरा आदमी
अधूरा आदमी आधी सचाई बन जाता था
और आधे झूठ के साथ जीता था अपनी पूरी ज़िन्दगी।