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अध्याय ११ / भाग २ / श्रीमदभगवदगीता / मृदुल कीर्ति

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अमी च त्वां धृतराष्ट्रस्य पुत्राः सर्वे सहैवावनिपालसंघैः।
भीष्मो द्रोणः सूतपुत्रस्तथासौ सहास्मदीयैरपि योधमुख्यैः॥११- २६॥

गुरु द्रोन सकल योद्धान रथी,
सुत कौरव , कर्ण व् भीष्म बली,
सगरे तुझ माहीं समाय रहै,
केहि की महाकाल के आगे चली

वक्त्राणि ते त्वरमाणा विशन्ति दंष्ट्राकरालानि भयानकानि।
केचिद्विलग्ना दशनान्तरेषु संदृश्यन्ते चूर्णितैरुत्तमाङ्गैः॥११- २७॥

विकराल विशाल जबाड़न में
बहु वेग सों मुखन समाय रहे.
कोऊ दांतन बीच लगौ दीखे,
कोऊ चूरन कोऊ चबाय रहे

यथा नदीनां बहवोऽम्बुवेगाः समुद्रमेवाभिमुखा द्रवन्ति।
तथा तवामी नरलोकवीरा विशन्ति वक्त्राण्यभिविज्वलन्ति॥११- २८॥

जस वेगवती सगरी नदियाँ,
एक सागर मांहीं समावत हैं,
तस वीर जनान समूह सकल,
धधकत मुख माहीं धावत है

यथा प्रदीप्तं ज्वलनं पतङ्गा विशन्ति नाशाय समृद्धवेगाः।
तथैव नाशाय विशन्ति लोकास्तवापि वक्त्राणि समृद्धवेगाः॥११- २९॥

निज देह जलावत मोहित हो,
जस होत पतंगा अग्नि में,
तस जावत है मुख माहीं तोरे ,
अति वेग समावत हैं क्षण में

लेलिह्यसे ग्रसमानः समन्ताल्लोकान्समग्रान्वदनैर्ज्वलद्भिः।
तेजोभिरापूर्य जगत्समग्रं भासस्तवोग्राः प्रतपन्ति विष्णो॥११- ३०॥

धधकात मुखन सों ग्रसि लोकन ,
सगरौ मुझ माहीं समाय रह्यो,
तोरे तप्त तेज सों तपित जगत
तोरे तेज सों तप्त तपाय रह्यो

आख्याहि मे को भवानुग्ररूपो नमोऽस्तु ते देववर प्रसीद।
विज्ञातुमिच्छामि भवन्तमाद्यं न हि प्रजानामि तव प्रवृत्तिम्॥११- ३१॥

बहु उग्र स्वरुप के देव महे ,
कौ आप हो ? आपकौ वंदन है,
अति आदि सरूप कौ जिज्ञासु ,
तोहे तत्त्व सों जानि सकौ मन है


कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः।
ऋतेऽपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे येऽवस्थिताः प्रत्यनीकेषु योधाः॥११- ३२॥

श्री भगवानुवाच
विकराल हूँ काल विशाल महा
मैं लोक विनासत हूँ अबहीं
तू मारि ना मारि तबहूँ अर्जुन!
निश्चय मरिहैं कबहूँ सबहीं

तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम्।
मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्॥११- ३३॥

अथ हे अर्जुन! तुम जुद्ध करौ,
रिपु जीत के वश धन राज करौ.
तू मात्र निमित्त मैं कर्ता हूँ,
उठ सव्यसाचिन रन काज करौ

द्रोणं च भीष्मं च जयद्रथं च कर्णं तथान्यानपि योधवीरान्।
मया हतांस्त्वं जहि मा व्यथिष्ठा युध्यस्व जेतासि रणे सपत्नान्॥११- ३४॥

अथ अर्जुन! द्रोण पितामह कौ,
जयद्रथ और कर्ण से योद्धन कौ,
तू मार अभय जय निश्चय है,
मत सोच हो तत्पर जुद्धन कौ

एतच्छ्रुत्वा वचनं केशवस्य कृताञ्जलिर्वेपमानः किरीटी।
नमस्कृत्वा भूय एवाह कृष्णं सगद्गदं भीतभीतः प्रणम्य॥११- ३५॥

संजय उवाच
सुनि केशव के इन वचनन कौ,
कर जोड़ी के अर्जुन काँपत है.
भय भीत भयौ , पुनि हाथ जुड़े,
गद-गद मन कृष्ण सों वाँचत है

स्थाने हृषीकेश तव प्रकीर्त्या जगत्प्रहृष्यत्यनुरज्यते च।
रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसंघाः॥११- ३६॥

हृषिकेश तोरे संकीर्तन सों,
मन मुदित बहुत जग हरषित है,
भय भीत असुर चहुँ दिसि धावति
गण सिद्ध तोहे विनयावत है

कस्माच्च ते न नमेरन्महात्मन् गरीयसे ब्रह्मणोऽप्यादिकर्त्रे।
अनन्त देवेश जगन्निवास त्वमक्षरं सदसत्तत्परं यत्॥११- ३७॥

सत और असत उन सों हूँ परे.,
आनंद घन आदि नियंता हो,
क्यों नाहीं नमन देवेश होय ,
ब्रह्मा केहूँ आदि अनंता हो

त्वमादिदेवः पुरुषः पुराणस्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्।
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरूप॥११- ३८॥

यम आदि सनातन देव पुरुष ,
आधार जगत सब जानत हौ
तुम जाननि जोग नियंता हो,
निज माहीं जगत समावत हो

वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च।
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते॥११- ३९॥

हो आदि पितामह ब्रह्मा के,
यमराज वरुण शशि पावक हो.
पुनि होत नमन, पुनि होत नमन ,
तोहे कोटि नमन प्रतिपालक हो

नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः॥११- ४०॥

समरथ तुझ माहीं अनंत महा,
व्यापक जग व्यापक तू ही तू.
तू सर्व रूप सर्वात्मन कौ.,
सर्वत्र नमन, सब तू ही तू

सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं हे कृष्ण हे यादव हे सखेति।
अजानता महिमानं तवेदं मया प्रमादात्प्रणयेन वापि॥११- ४१॥

मम कृष्ण ! सखे हे ! यादव हे !
महिमा नाहीं तोरी जानति हूँ,
हठ, प्रेम, प्रमाद, ठिठोली में
जो तोसों कह्यो पछतावति हूँ

यच्चावहासार्थमसत्कृतोऽसि विहारशय्यासनभोजनेषु।
एकोऽथवाप्यच्युत तत्समक्षं तत्क्षामये त्वामहमप्रमेयम्॥११- ४२॥

यदि बैठति, खावति, सोवति में,
एकांत सखाउन सम्मुख मैं,
अनजाने भयौ अपमान क्षमा
तौ अच्युत माँगति, उन्मुख मैं

पितासि लोकस्य चराचरस्य त्वमस्य पूज्यश्च गुरुर्गरीयान्।
न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः कुतोऽन्यो लोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभाव॥११- ४३॥

गुरु और पिता तोसों बढ़ कर,
नाहीं लोक चराचर माहीं कोऊ
कोऊ दूसर तीनहूँ लोकन में
अस शक्ति पुंज नाहीं कोऊ

तस्मात्प्रणम्य प्रणिधाय कायं प्रसादये त्वामहमीशमीड्यम्।
पितेव पुत्रस्य सखेव सख्युः प्रियः प्रियायार्हसि देव सोढुम्॥११- ४४॥

पितु पुत्र को जैसे सखा कौ सखा
अस कीजौ क्षमा मोरे अवगुण कौ.
अति पूजन जोग नमन पुनि-पुनि
सर्वस्य समर्पित चरणं कौ

अदृष्टपूर्वं हृषितोऽस्मि दृष्ट्वा भयेन च प्रव्यथितं मनो मे।
तदेव मे दर्शय देव रूपं प्रसीद देवेश जगन्निवास॥११- ४५॥

नाहीं देख्यो गयौ कबहूँ पहिले,
यहि रूप ने हर्ष घनेरो करौ..,
मन मेरौ भयाकुल व्याकुल, सौं
देवेश चतुर्भुज रूप धरौ

किरीटिनं गदिनं चक्रहस्तमिच्छामि त्वां द्रष्टुमहं तथैव।
तेनैव रूपेण चतुर्भुजेन सहस्रबाहो भव विश्वमूर्ते॥११- ४६॥

कर चक्र व् शीश किरीट धरौ,
हे! बाहू सहस्त्र चतुर्भज हो,
तुम विश्व सरूप, सलोनों सों रूप,
में देखिबु चाहत तुम निज हो

मया प्रसन्नेन तवार्जुनेदं रूपं परं दर्शितमात्मयोगात्।
तेजोमयं विश्वमनन्तमाद्यं यन्मे त्वदन्येन न दृष्टपूर्वम्॥११- ४७॥

हे पार्थ! तोहे मम आतम योग सों ,
रूप विराट दिखायो गयौ ,
यहि रूप सिवा तोरे दूसर सों
ना तो देख्यो गयौ ना दिखायो गयौ

न वेदयज्ञाध्ययनैर्न दानैर्न च क्रियाभिर्न तपोभिरुग्रैः।
एवंरूपः शक्य अहं नृलोके द्रष्टुं त्वदन्येन कुरुप्रवीर॥११- ४८॥

ना तो वेदन यज्ञं अध्ययन सों,
ना दान तपों की क्रियानन सों.
नर रूप में रूप विराट लख्यो.
है शक्य , जो संभव अर्जुन सों

मा ते व्यथा मा च विमूढभावो दृष्ट्वा रूपं घोरमीदृङ्ममेदम्।
व्यपेतभीः प्रीतमनाः पुनस्त्वं तदेव मे रूपमिदं प्रपश्य॥११- ४९॥

विकराल विशाल विराट सरूप,
सों, मूढ़ ना व्याकुल अर्जुन हो.
भय हीन प्रतीति सों प्रीतिमना,
लखि रूप चतुर्भुज, तुम निज हों

इत्यर्जुनं वासुदेवस्तथोक्त्वा स्वकं रूपं दर्शयामास भूयः।
आश्वासयामास च भीतमेनं भूत्वा पुनः सौम्यवपुर्महात्मा॥११- ५०॥

संजय उवाच
फिरि आपुनि रूप चतुर्भुज कौ,
वासुदेव दिखावत अर्जुन कौ,
पुनि कृष्ण ! दिखावत सौम्य विभा
दियो धीरज व्याकुल प्रानन कौ

दृष्ट्वेदं मानुषं रूपं तव सौम्यं जनार्दन।
इदानीमस्मि संवृत्तः सचेताः प्रकृतिं गतः॥११- ५१॥

अर्जुन उवाच
अति शांत मनुज यहि रूप तेरौ ,
चित शांत जनार्दन होत घनयो .
उद्विग्न भयातुर चित्त मेरौ,
अब शांत सुभाव में जात रमयो

सुदुर्दर्शमिदं रूपं दृष्टवानसि यन्मम।
देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकाङ्क्षिणः॥११- ५२॥

श्री भगवानुवाच
अवलोकि लियौ अर्जुन तुमने,
तेहि रूप चतुर्भुज दुर्लभ है.
हिय माहीं घनेरी चाह तबहूँ
ना देवहूँ को अपि संभव है

नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया।
शक्य एवंविधो द्रष्टुं दृष्टवानसि मां यथा॥११- ५३॥

तप, दान, ना यज्ञ ना वेदन सों,
मम रूप चतुर्भुज देखे कोऊ .
जेहि रूप को देवाहूँ तरसत है,
तेहि रूप कौ अर्जुन देखौ सोऊ

भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन।
ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परंतप॥११- ५४॥

प्रिय मोरे परन्तप हे अर्जुन!
न भक्ति अनन्य ना तत्वन सों.
प्रत्यक्ष चतुर्भुज देखि सकै,
है शक्य कोऊ भी प्रानिन सों

मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः सङ्गवर्जितः।
निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव॥११- ५५॥

आसक्ति ना बैर हो जाके हिया,
मोरे हित केवल कर्म करैं,
वे होत परायण लीन जना,
वे जानि के मोरो मर्म तरै